शनिवार, 10 जुलाई 2010

सह्याद्रि (मराठी )



चला चला सह्याद्रीच्या कुशी मध्ये,
हि सुंदर डोंगर रांग आणि धबधबे,
ढगांनी झाकलेले ते अभेद्य किल्ले, 
क्षणभर विसावा कधी गुहेमध्ये, 
खरच चला .. चला सह्याद्रीच्या सुंदर कुशी मध्ये..

----------- निपुण पाण्डेय "अपूर्ण"

हिंदी  अनुवाद : 
चलो चलो सह्याद्रि की गोद में ,
ये सुन्दर पर्वत श्रंखलायें और झरने ,
बादलों में ढके हुए वो अभेद्य किले ,
क्षण भर कभी गुफा में आराम करो ,
चलो ! चलो सह्याद्रि की सुन्दर गोद में !

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गुरुवार, 1 जुलाई 2010

प्रथम किरण सूरज की...

अलसाई सी बैठी थी कब से
डूब गयी थी किस जग में ?
तोड़ निशा के बंध घनेरे
प्रथम किरण जो आई नभ में |

मेघों का भी दंभ ढह चुका
पुलकित हो आह्लाद कर उठा,
सज्जित हो फिर रक्त वर्ण में
नभ सारा ऐसे दमक उठा |

फिर एक अनूठी लहर उठी
वसुधा पल भर में महक उठी ,
हर कण, तन मन जीवन में
स्वर्ण रश्मि हो मुखर उठी |

रह रह कर नव रंगों में ढल
नाच उठे आशाओं के दल ,
मन विस्मृत सा देख रहा बस
क्या होने को है अगले पल |

गहन निशा की एक थपकी से
गुम सुम सी जो ओस बनी थी,
अभिलाषा वो लहक उठी थी
रवि मंडप को निकल पड़ी थी |

कोमल सी ऐसी भानु प्रभा
छू जाती थी जिस भी तन को ,
मानव पंछी तरु पादप सब
उठ पड़ते बस उड़ जाने को |

रोज़ सुबह ऐसे ही आयें
रवि किरणे इठलाती चंचल ,
आलोकित कर जाएँ धरा को
कर जाएँ हर मन को निर्मल |


------------ निपुण पाण्डेय "अपूर्ण"

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बुधवार, 30 जून 2010

सवाल....

कभी किसी अँधेरी गुफा में देखा है
कैसे लटके रहते हैं चमगादड़
और
टोर्च से निकलते ही
एक जरा सी रौशनी
उड़ने लगते हैं अचानक
ना जाने क्यों ?
ना कोई मकसद,
ना कोई मंजिल,
बस उड़ते रहते हैं |

बंद होते ही टोर्च
फिर लटक पड़ते हैं
जैसे हैं, जहाँ हैं, वैसे ही !

कभी अकेले बैठा हुआ
उतरता हूँ मैं भी
एक अँधेरे तहखाने में
अपने भीतर |

दिख पड़ते हैं
असंख्य चमगादड़ 'सवालों' के
बेतरतीब लटके हुए,

मुझे देखते ही
उड़ने लगते हैं बेलगाम !

कोई पकड़ लेता है
किसी दूसरे की दुम,
कोई गिराने लगता है
तो कोई
खींचता है दूसरे को
कोई काटने लगता है ,
कुछ लम्बे होने लगते हैं
कुछ गायब भी !

अगले ही पल
एक हलचल होती है
बाहर ,
सब खामोश
लटक पड़ते हैं
मेरे बाहर आते ही |

ना जाने
इन सवालों की भी कैसी आदत है
हमेशा
लटके ही रह जाने की !

-------------- निपुण पाण्डेय "अपूर्ण "

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रविवार, 27 जून 2010

राक्षस कौन ?

रहता था जब
शहर के बीच में
मेरी खिड़की से दिखती थी दूसरी खिड़की
और बालकोनी से दूसरी बालकोनी
घर के नीचे सड़क,
बड़ी बड़ी गाड़ियाँ
और आसमान तक बस
बालकोनी और खिड़कियाँ !

अगर मैं होता धनी
तो देख पाता बस वही,
ये तो मजबूरी ही थी कि
आ गया शहर से दूर

अब मेरी बालकोनी में
तोते भी बैठते हैं कभी , गौरैया भी
कबूतर फुदकते रहते हैं
सामने हरे भरे पेड़ और फूल |

थोड़ी दूर पर पहाड़ हैं
झरने भी फूट पड़ते हैं यहाँ
बारिश में !

कितना खुश हूँ मैं यहाँ !

लेकिन ,
एक पहाड़
अब बचा है आधा ही !
कोई निगल रहा है इसे
कुछ दिन बाद
मुझे यहाँ दिखेगी फिर
बालकोनी अपनी बालकोनी से

और नए घर में रहने वाला
देखेगा
पहाड़ को और पेड़ों को
उस पहाड़ के पार वाले

मैं भी यहाँ हूँ
क्योंकि निगल लिया है
यहाँ पर खड़े पहाड़ को
और मिल गया है ये घर !

सोचता हूँ
राक्षस कौन ?
ये शहर !
जो निगलता जा रहा है सब कुछ
या
आकांक्षा की मजबूरी तले दबा हुआ इंसान
और मैं खुद !

लिख रहा हूँ
क्योंकि आज खुश हूँ
और
दुखी हूँ कल के लिए
लेकिन
दोषी तो मैं ही हूँ
आज और कल के लिए !

---- निपुण पाण्डेय "अपूर्ण"

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रविवार, 9 मई 2010

एक बूँद आत्मसम्मान...

अगर
है आपके पास
आत्मसम्मान की एक बूँद
तो कौन सी नयी बात है ?
हर कोई पैदा होता है
यहाँ तक कि जानवर भी
आत्मसम्मान ले कर ही |

क्यूँ हर बात पर
हर वजह की वजह में
हर उधडती मायूसी को
सीना चाहते हैं
आत्मसम्मान के गुण गान से!

जिंदा नही रख पाते सब
अपने भीतर |

आखिर क्यों रखें
क्या मिला है इससे
किसी को कभी भी
बस ! इतिहास में थोडा नाम
या दो चार लोगों की बातों में
एक हाथ जगह |

जब आप इसे बेच कर
देख सकते हैं सुकून के सपने
चार दिन चांदनी में
तो क्यों ना बेचें ?
जमा किया और
काम ही ना आया
तो संचय का अर्थ क्या ?

इसे बचा कर
क्या पा जायेंगे आप
बस !
अपनी नज़रों में जगह
वो भी डर डर कर
एक आधा इंच ....

अगर बेच खाएं आप
फिर तो संशय ही कहाँ
ना कोई भय
उपर नीचे उठने गिरने का !

वैसे तो
आत्मसम्मान से क्या होता है !
'प्रेक्टिकल' नही रहा अब

तो बेच खाइए !
लेकिन खत्म हो गया एक बार
तो
फिर क्या बेचेंगे आप ?

और फिर
रह ना जाएँ
'ना घर के ना घाट के' !

---------- निपुण पाण्डेय "अपूर्ण"

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गुरुवार, 29 अप्रैल 2010

इन शहरों के भी क्या कहने....

इन शहरों के भी क्या कहने
बस रंग बिरंगे कपडे हैं पहने ....

दिन के उजियारे में जब सूरज तेज दिखाता है
धुंए के मोटे कम्बल को भेद कभी ना पाता है
वो चंचल किरणे जो कहीं ठिठोली करती हैं
बैठ वहीँ, शहरों को अब देख देख वो रोती हैं

इन शहरों के भी क्या कहने
बस रंग बिरंगे कपडे हैं पहने ....

यूँ तो शहर अनोखा और अगणित लोग यहाँ
जाने पहचाने चेहरे पर कोई अपना सा कहाँ
अपनी ही आपाधापी में यूँ सिमट गये सब
खुद से आगे सोच सके जो समय मिले तब

इन शहरों के भी क्या कहने
बस रंग बिरंगे कपडे हैं पहने ....

खामोश निशा जब ढक लेती है पूरे जग को
हर लेती है शहरों की चमक तब उस तम को
चमक बड़ी रंगीं होती, बाहर से बड़ा लुभाती
भीतर इसके घने बादलों की काली छाया होती

इन शहरों के भी क्या कहने
बस रंग बिरंगे कपडे हैं पहने ....

लगे दमकने ये रंगीन रौशनी जब धीरे धीरे
तम के रखवाले तब बिन आहट पैर पसारे
फिर लग जाता है मेला काली करतूतों का
और होने लगता सौदा किन किन चीज़ों का

इन शहरों के भी क्या कहने
बस रंग बिरंगे कपडे हैं पहने .....

------------ निपुण पाण्डेय "अपूर्ण"

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शनिवार, 6 मार्च 2010

क्यों डरे ....वो किससे डरे !

बहुत दिनों से कुछ ऐसी व्यस्तता हो गयी है कि चाह कर भी ब्लॉग पर आने ...कुछ लिखने ...कुछ पढने का समय ही नही निकाल पा रहा ......इसी बीच कई दिन पहले लिखी कुछ पंक्तियाँ दिख गई ....सोचा ब्लॉग पर पोस्ट कर दूँ....सन्नाटा थोडा लम्बा हो गया अब एक हल्की सी हलचल हो जाये....:)
इस उम्मीद के साथ कि बहुत जल्द फिर से वापस आऊंगा इस तरफ...:)


क्यों डरे ....वो किससे डरे !
मन की उड़ानों को जो भरे !
उमंगों के पर लगा के उड़े
चाहत की झोली भर के चले

क्यों डरे...वो किससे डरे ......
मन की उड़ानों को जो भरे !

अपने ही रस्ते चलना उसे
गम ना कोई वो फ़िक्र करे
सोचे जिधर वो चल दे उधर
बेशुमार जज्बे दिल में लिए !

क्यों डरे...वो किससे डरे ......
मन की उड़ानों को जो भरे !

अपनी ही धुन में चलता रहे
अम्बर तक पहुंचे उसकी उड़ाने
सागर से गहरे गोते लगे ,
हर पल की हंस के कहानी कहे !

क्यों डरे...वो किससे डरे ......
मन की उड़ानों को जो भरे !

------------- निपुण पाण्डेय "अपूर्ण"

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बुधवार, 27 जनवरी 2010

हाशिया...!

याद है ना!
एक हाशिया होता था!
इसके उस पार लिखा तो
कट जाते थे नंबर
इम्तेहान में !

एहतियात के लिए
हर कोई
कॉपी मिलते ही ,
हर पन्ने पर
खींच देता था हाशिया !
और फिर शुरू करता था
लिखना |

लेकिन ये तो आदत सी ही पड़ गई !

हाँ !
ज़िन्दगी एक किताब है !
मानता हूँ मैं,
और ये भी
कि जीवन एक इम्तेहान !

मगर,
हाशिया ना हो
ज़िन्दगी में गर !
तो क्या
हो जायेंगे फेल !

क्यों हमेशा खींच देते हैं
हम,
एक हाशिया ज़िन्दगी में !
और जीते रहते हैं
उसके एक तरफ !
सोचते भी नहीं कभी
क्या होगा दूसरी तरफ !

सच बताऊँ !
मैंने तो
छोड़ दिया था
बहुत पहले ही
हाशिया खींचना !
इम्तेहान की कॉपी में|

पर अब
ना जाने क्यों
मजबूर होता हूँ अक्सर, खुद ही
ज़िन्दगी में
खींचने को हाशिया!

नही हो सकती क्या ?
जिन्दगी,
हाशिये के उस पार !

------------ निपुण पाण्डेय "अपूर्ण"

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मंगलवार, 26 जनवरी 2010

बिखरे गणतंत्र को बसाना है !

आप सभी को गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं !

इस महानतम गणतंत्र को
चलो! पुनः हम आबाद करें !
जो हुई गलतियाँ, सुधारें
छूटे लोगों को अब साथ करें !

क्यों बड़ी बड़ी हम बातें करते ?
डग एक नहीं जब भर सकते !
अंश भर सहयोग हर एक करे,
एक अरब फिर उसमे योग करे |

सर्वोच्च धर्म अपने अन्दर है
भ्रष्ट मन को पहले साफ़ करें
उसके बाद फिर बाहर झांकें
प्रेम का सबसे आगाज़ करें !

आज़ादी कोई छोटा खेल नहीं
गणतंत्र नहीं होता आसान ,
हर एक की जिम्मेदारी होती
जिसको धरती प्यारी होती !

कितने वर्षों का, कितने वीरों का
बलिदान हम व्यर्थ कर रहे
अपने को बाहर करके घर से
स्थिति पर आक्रोश कर रहे !

देश पर कब तक व्यंग करेंगे
भागेंगे अपने ही कर्तव्यों से,
अगर हम नहीं !तो कौन करेगा
व्यवस्था बनती हम सब से !

एक भी अगर छूट गया तो
एक कड़ी गिर गयी तंत्र से ,
हर एक को आगे आना है
जो पाना है कुछ गणतंत्र से !

आओ ! आवाजें कर लें भारी
सुप्त तंत्र को अगर जगाना है ,
हर एक को जोड़ें संग अपने
बिखरे गणतंत्र को बसाना है !

चलो ! स्वयं से शुरुवात करें
अपने मन में एक दीप जलाएं ,
कदम बढ़ाएं छोटा, जो बस में
देश को फिर सुखी समृद्ध बनायें !

----------------निपुण पाण्डेय "अपूर्ण"

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बुधवार, 20 जनवरी 2010

कहाँ आया बसन्त.......!! किसने देखा ?

सुना है बसन्त ऋतु आई है ! अभी अभी कैलंडर पे नज़र गई तो पता चला ! बसन्त पंचमी की शुभकामनाएं ! :):)




शुभ बसंत ये आया खिल उठी प्रकृति रे !
मुस्काते स्वागत गीत मधुर हर तरु से फूटे
शुभ्र पुष्प दल खिले खिले यूँ लगे महकने,
पल पल हर चंचल कोपल नयी छठा बिखेरे |

पीत वसन में लिपट धरा यूँ लगी सुहानी ,
सरसों झूमे दूर दूर तक, कोयल मधुस्वर छेड़े,
गुनगुनी धूप की प्यारी किरणे झलकी भू पर,
ऋतुराज के स्वागत गीत शीतल पवन संवारे |

ऐसे गीत तेरे स्वागत में, था हर कोई गाता ,
सुनता था मैं भी आता 'बसंत' ,ऐसा छा जाता,
बरसों पहले की यादें, इस बार नहीं मैं गा पाया,
ए शहर ! बता क्या बसंत कोई यहाँ पर आया ?

प्रकृति जो कंक्रीट की हो गई, कैसे अब सँवरेगी ?
प्लास्टिक के सुन्दर फूलों में, खुशबू क्या बिखरेगी?
तरु तो ऊँचे ऊँचे भवन हुए, क्या कोपल निकलेगी ?
बता मुझे ! बस गाने से क्या ऋतू प्यारी निखरेगी ?

रह गये बसंत तुम गीतों में ,बस याद हो आते ,
वन उपवन सौन्दर्य, दिलों में मादकता, झूठी बातें,
नयनों का सुख और मिलन ऋतू रह गई पीछे ,
वैसा ही जीवन यहाँ, बसंत ! तुम आते या जाते |

कैलंडर ये टंगा हुआ बस ! तेरी याद दिला पाता,
चाहता जब तुझे खोजना, गमले में शरमाता पाता |
धीरे धीरे तेरे स्वागत गीत मधुर भूल भी जाऊंगा,
क्या होता था बसंत? फिर ये भी ना बतला पाउँगा |

छुट्टी ले कुछ दिन में, फिर तुमको खोजने आऊंगा ,
दिख जाना जंगल में किसी, अगर बचे रह पाओगे |
वैसे भी अब प्रजातंत्र है ,राजाओ की एक ना चलती है,
इतिहास के पन्नो में ही बस ,'ऋतुराज' कहलाओगे !

---------------------- निपुण पाण्डेय "अपूर्ण "

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सोमवार, 18 जनवरी 2010

दौड़........!!

दौड़ है !
दौडाए जा रहे हैं सब !
दौड़ रहा हूँ मैं भी,
अपनी मर्जी से नहीं !
लोग कहते हैं
कौन हैं लोग किसे पता ?
बस दौड़ना है इस तरफ ,
कौन है आगे किसे पता ?
क्यों दौड़ना है किसे पता ?

लेकिन पीछे तो हैं
सब
किसी ना किसी के !
दिखता कहाँ किसी को
अंत बिंदु,
पर
ये भूख कैसी !
खुश कोई नहीं !
फिर किस लिए ?

अगर मैं चाहूँ
रुक के सोचूं , फिर दौडूँ आगे,
नहीं !
नहीं मिलेगा मौका!
बहुत जोर है सबमे ,
धकेलते आये हैं , धकेल ही देंगे !
टूट रहा हूँ कहीं भीतर !

इस असंख्य भीड़ में
कई टूट जाते हैं
रुकने की कोशिश में
गिनती ही कहाँ !
किसी को फर्क नहीं पड़ता !

बाकी बचे
दौड़ते हुए छोड़ देते हैं
दुनिया !
बिना जाने
क्यों दौड़े थे ?
कुछ ही होते हैं,
जो दौड़ पाते हैं
दौड़ अपने मन की !
अपने ट्रेक पर !

क्या हो जायेगा ?
अगर मैं रुक गया !
दिख गया दूसरा रास्ता
अपनी ख़ुशी का मुझे !
लेकिन कोई सोचना ही नहीं चाहता !

ये 'लोग' भी
बड़े अजीब हैं !
पता नहीं कौन हैं ?

पर सब कहते हैं
'लोग' क्या कहेंगे ?
इसलिए
दौड़ो !
सोचो मत,
बस दौड़ो !

------------- निपुण पाण्डेय "अपूर्ण"

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शुक्रवार, 15 जनवरी 2010

जय बोल....!

भारतीय सेना दिवस के अवसर पर भारत माँ के उस हर इक सपूत को समर्पित , जो हमारे इस सुखद जीवन के लिए अपने प्राणों की जरा भी फिक्र नहीं करता !


जय बोल जय जय बोल जय जय बोल
कर जयजयकार ए देश मेरे जय बोल
निज प्राणों की आहुति दे जो अमर हुए
वीर, देश के सेनानी की जय जय बोल |

उठा प्रतिज्ञा आने ना देंगे आंच तन पर
भारत माँ के , निज धर्मों का बंधन खोल,
रणबांकुरे ध्वस्त कर चले शत्रु के जाल ,
माँ के ऐसे हर सपूत की जय जय बोल |

निर्जन हिम खण्डों के ऊँचे धवल शिखर ,
गर्म रेत के असह्य सागर, पग तले टटोल !
हम सब की स्वप्निल सुखद नींद को जो
खड़े रहे निशि दिन, उनकी जय जय बोल |

त्याग जीवन मोह, वो फौलादी जिगर हुए,
लोहे ज्यों तप तप कर वो बने शत्रु के काल,
कर गर्जन कंपित कर दे दुश्मन की सांसें
सजग, देश के उस प्रहरी की जय जय बोल |

तज माया और धन की चकाचौंध, कर निज
कर्त्तव्य, मातृभूमि पर न्योछावर प्रति पल ,
जीता जो दुर्गम भू में नित निष्ठुर जीवन |
स्वार्थ में मत हो मगन देश, उसे मत भूल|

देश के उस हर सच्चे प्रेमी की जय बोल |
कर जयजयकार ए देश मेरे उसकी जय बोल |

--------------- निपुण पाण्डेय "अपूर्ण"

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गुरुवार, 14 जनवरी 2010

माझी प्रथम मराठी कविता : संक्रांतीच्या हार्दिक शुभेच्छा !

कितना महान देश है भारत ! अनेकता में एकता !
कुछ सालों से महाराष्ट्र में हूँ तो इस धरती की संस्कृति को जानने और समझने का इससे अच्छा अवसर और कहाँ !
धीरे धीरे कुछ मित्रों की मदद से मराठी भी सीखने लगा ! भाषा का क्या है , जितना जानो उतना कम !
हर जगह मानव ही तो हैं ! बस फर्क है थोडा संस्कृति का ! भाषा का! पर सबसे बड़ी चीज़ तो मानवता है जो सबमे एकरूप से बसती है और यही हर जगह सबसे बड़ा अपनापन है !
आज मकर संक्रांति के शुभ अवसर पर अपने मित्र अमोल सुरोशे के मार्गदर्शन में एक मराठी कविता लिखने का प्रयास किया !


शुभ पर्व आहे हा संक्रान्तिचा
स्नान करा , घ्या संकल्प नवा
तन आणि मन आपण शुद्ध करा
तीळ गुळ घ्या, गोड़ गोड़ बोला !

आता सूर्य आला उत्तर मध्ये
आणि प्रकाश जीवनात तुमच्या
द्या सर्वाना सन्देश आज मैत्रीचा
तीळ गुळ घ्या, गोड़ गोड़ बोला !

भीष्माने त्यागला होता आपला देह
आजच्याच दिवशी, गंगा आली पृथ्वीवर !
असा हा संक्रान्तिचा आहे महिमा
तीळ गुळ घ्या, गोड़ गोड़ बोला !

कुठे आहे लोहड़ी , ते कुठे उत्तरायणी
कुठे पर्व पोंगल्च्या आणि कुठे बिहूचा
माझ्या राष्ट्रामध्ये अनेकते मध्ये एकता
हे पर्व संक्रांतीच्या तुम्हा सर्वाना हार्दिक शुभेच्छा !
तीळ गुळ घ्या आणि गोड़ गोड़ बोला !

-------- निपुण पाण्डेय "अपूर्ण "

****मी मराठी शिकत आहे ! चूक दिसल्यास क्षमा असावी !
विशेष आभार : श्री अमोल सुरोशे ( मराठी मार्गदर्शन साठी )

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रविवार, 10 जनवरी 2010

'सह्याद्रि' के लिए .....

बारिश कब की जा चुकी है,
अब सर्दियाँ भी जाने को हैं,
उसके तन से
एक एक वस्त्र झर रहा है |
ये पत्ते धागे हैं इन वस्त्रों के,
जिनमें लिपट
जब खड़ा हो जाता है वो,
मीलों दूर से
खींच लेता है नेत्रों को !
मिटा देता है !
ना जाने कितनों की थकान
दे देता है !
कितने अधरों को मुस्कान
और शांति
कितने मस्तिष्कों को !

लेकिन,
वो खड़ा है !
सदियों से,
उसी जगह,
वैसे ही!
और हमेशा रहेगा!
लड़ता है हर साल
सूरज से!
और फिर जीत जाता है !
उसे आदत सी हो गई है अब,
तप तप के कठोर हो चुका है बाहर से
लेकिन भीतर से ,
कितना कोमल , कितना सहृदय !

इन दिनों,
सब भूल गए हैं उसे !
कोई नहीं जाता उसके पास,
पर जब "सह्याद्रि"***
जीत जायेगा इस साल ,
फिर आएगा हरियाले कपडे पहन कर,
फिर उसकी सुध लेने जायेंगे
सारे मानव,
जमघट सा भी लगेगा !
और वो,
फिर से सबको सुख देगा !
क्योंकि उसने तो बस देना सीखा है!

जो समझो तो
कितना फर्क है !
इंसान और पहाड़ में,
शायद वो सिखा सकता है
मानवता, मानव को !

-----------------निपुण पाण्डेय "अपूर्ण"


***** 'सह्याद्रि' भारत में फैले हुए पश्चिमी घाट (विशाल पर्वत श्रंखला ) का उत्तरी भाग है ! अरब सागर के समान्तर एक दीवार की तरह स्थित प्रकृति का अनुपम वरदान सह्याद्रि अपने पर्वतों , घने जंगलों और एतिहासिकमहत्व के कारण बहुत प्रसिद्द है!

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शुक्रवार, 8 जनवरी 2010

बन-मक्खन

कल रात नींद नहीं आई
मन किया
बाजू वाले की रजाई खींच लूँ ,
बंद आँखों के साथ उसको
बिठा लूँ पीछे
बाईक पर!

खूँटी पर टंगी, बिस्तर पर पड़ी
अपनी या किसी की
पैंट कमीज की जेबें तलाशूँ
और
निकालूं कुछ १०-२० के नोट
भर लूँ कमरे के सारे चिल्लर
जेब में अपनी !

फिर निकल पडूं
सर्दी की रात के
अँधेरे में खिले हुए
घने कोहरे के बीच
फूट रहे उस सन्नाटे में !

चलूँ बस इतनी गति से
की बस बंद ना हो
इंजन !
घुर्र घुर्र
सरकती रहे बाईक
और बढ़ते रहें हम !

एक रौशनी तक
चौराहे की
मुंशी पुलिया के !
कुछ रिक्शे वाले , कुछ टेम्पो !
और एक ठेला चाय का!

गरमा गरम बन मक्खन
चाय के साथ !
फिर बैठा रहूँ कुछ देर!
पैसे गिनूँ जेब में !
फिर एक और बन मक्खन !

इस स्वाद के साथ
कब नींद आ गयी
पता ही नहीं चला !
सुबह उठा तो स्वाद भी चला गया !
चाय पी लेकिन
रात वाली नहीं थी !

वो कॉलेज की रातें थी !
बन मक्खन अब भी मिलता है
पर रात में कम निकल पाता हूँ ,
सुबह ऑफिस जाता हूँ अब !
बेफिक्री में उस श्रम के लेकिन
बन मक्खन का स्वाद अलग था !

-------------------------- निपुण पाण्डेय "अपूर्ण"

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कविता by निपुण पाण्डेय is licensed under a Creative Commons Attribution-Noncommercial-No Derivative Works 2.5 India License. Based on a work at www.nipunpandey.com. Permissions beyond the scope of this license may be available at www.nipunpandey.com.

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