मंगलवार, 29 सितंबर 2009

मैं 'घुमन्तू '

बहुत दिन हो गए | कई दिनों से जरा घूमने के शौक में व्यस्त हूँ | पता नहीं क्यों आजकल घर पे नहीं टिक पाता | एक अलग एहसास है घूमने में भी |
आज फिर से कविता लिखने की कोशिश की तो वही कुछ लिख पड़ा |

गुम हूँ कहीं
लेकिन,
खोया नहीं हूँ
खोज ही रहा हूँ अब तक
आजमा रहा हूँ तरीका नया |

इन दिनों देखता हूँ
हर जगह से उगता सूरज ,
महसूस करना चाहता हूँ
हर ख़ुशी को उसकी |

हर डूबते सूरज से,
मिल पड़ता है
राह में जो,
पूछता हूँ उसके अनुभव |
सोचता हूँ कुछ,
थोडा समझता हूँ
फिर खोजता हूँ |

हर पानी से पूछता हूँ
राज़ क्या है
निरंतरता का उसकी,
नयी-नयी हवाएं ,
कह जाती हैं कुछ
कान में धीमे से
फुसफुसाकर|
कभी उलझा जाती हैं,
कुछ सुलझ भी पड़ता है कभी,

समय एक चक्र है
और जीवन भी,
सब घूमता है|
पहले अकेला बैठ
घुमाता था दिमाग को,
सोचता था कुछ ,
खोजता था |

पर
इन दिनों
घूमता हूँ
चक्के की तरह,
लेकिन,
चक्के सा बेजान नहीं |

जैसे लग गए पहिये मुझ में,
बस नापना चाहते हैं,
दूरियां सारी |
लेकिन अब भी खोजता हूँ,
देखता हूँ बहुत कुछ
समझता हूँ नया
न जाने क्या कुछ |
इन दिनों
बन गया हूँ
मैं 'घुमन्तू'|

----------------निपुण पाण्डेय "अपूर्ण "

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