शनिवार, 10 जुलाई 2010

सह्याद्रि (मराठी )



चला चला सह्याद्रीच्या कुशी मध्ये,
हि सुंदर डोंगर रांग आणि धबधबे,
ढगांनी झाकलेले ते अभेद्य किल्ले, 
क्षणभर विसावा कधी गुहेमध्ये, 
खरच चला .. चला सह्याद्रीच्या सुंदर कुशी मध्ये..

----------- निपुण पाण्डेय "अपूर्ण"

हिंदी  अनुवाद : 
चलो चलो सह्याद्रि की गोद में ,
ये सुन्दर पर्वत श्रंखलायें और झरने ,
बादलों में ढके हुए वो अभेद्य किले ,
क्षण भर कभी गुफा में आराम करो ,
चलो ! चलो सह्याद्रि की सुन्दर गोद में !

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गुरुवार, 1 जुलाई 2010

प्रथम किरण सूरज की...

अलसाई सी बैठी थी कब से
डूब गयी थी किस जग में ?
तोड़ निशा के बंध घनेरे
प्रथम किरण जो आई नभ में |

मेघों का भी दंभ ढह चुका
पुलकित हो आह्लाद कर उठा,
सज्जित हो फिर रक्त वर्ण में
नभ सारा ऐसे दमक उठा |

फिर एक अनूठी लहर उठी
वसुधा पल भर में महक उठी ,
हर कण, तन मन जीवन में
स्वर्ण रश्मि हो मुखर उठी |

रह रह कर नव रंगों में ढल
नाच उठे आशाओं के दल ,
मन विस्मृत सा देख रहा बस
क्या होने को है अगले पल |

गहन निशा की एक थपकी से
गुम सुम सी जो ओस बनी थी,
अभिलाषा वो लहक उठी थी
रवि मंडप को निकल पड़ी थी |

कोमल सी ऐसी भानु प्रभा
छू जाती थी जिस भी तन को ,
मानव पंछी तरु पादप सब
उठ पड़ते बस उड़ जाने को |

रोज़ सुबह ऐसे ही आयें
रवि किरणे इठलाती चंचल ,
आलोकित कर जाएँ धरा को
कर जाएँ हर मन को निर्मल |


------------ निपुण पाण्डेय "अपूर्ण"

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कविता by निपुण पाण्डेय is licensed under a Creative Commons Attribution-Noncommercial-No Derivative Works 2.5 India License. Based on a work at www.nipunpandey.com. Permissions beyond the scope of this license may be available at www.nipunpandey.com.

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