रविवार, 31 जुलाई 2011

कुछ...

कुछ जुड़ गया
कुछ रह गया
कुछ मिल गया
कुछ खो गया

यूँ हो गया
कुछ कह गया
कुछ सुन गया
कुछ याद था
कुछ भूला गया 

कोई वक़्त था
कब बढ़ चला
कब थम गया
कुछ नम हुआ
कुछ सिल गया
कुछ खिल उठा
कुछ गा पड़ा

हर पल नया
यूँ दिख गया
कुछ रब्त थे
मिट भी गये
बंधन नए
बंध भी गये
पर जब्त था
बढ़ता ही गया
वो वक़्त था
कहता ही गया

ये साँस थी 
बस चलती रही
हर पल नया
कहती रही
वो ख्वाब थे
हम बुनते रहे

वो तो ख्वाब थे
उधडे भी कभी
फिर सिलने की,
की जुगतें कई
कुछ सिल गये
कुछ उधड़ते ही गये

ये कि जिन्दगी थी
यूँ चलती ही रही
हँसाती भी रही
उलझाती भी गई

और
एक हम भी थे
कि, हँसते भी रहे
फिर रोया भी किए
उलझे भी रहे
पर,
सुलझते ही गये |

.................. निपुण पाण्डेय "अपूर्ण "

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