गुरुवार, 1 जुलाई 2010

प्रथम किरण सूरज की...

अलसाई सी बैठी थी कब से
डूब गयी थी किस जग में ?
तोड़ निशा के बंध घनेरे
प्रथम किरण जो आई नभ में |

मेघों का भी दंभ ढह चुका
पुलकित हो आह्लाद कर उठा,
सज्जित हो फिर रक्त वर्ण में
नभ सारा ऐसे दमक उठा |

फिर एक अनूठी लहर उठी
वसुधा पल भर में महक उठी ,
हर कण, तन मन जीवन में
स्वर्ण रश्मि हो मुखर उठी |

रह रह कर नव रंगों में ढल
नाच उठे आशाओं के दल ,
मन विस्मृत सा देख रहा बस
क्या होने को है अगले पल |

गहन निशा की एक थपकी से
गुम सुम सी जो ओस बनी थी,
अभिलाषा वो लहक उठी थी
रवि मंडप को निकल पड़ी थी |

कोमल सी ऐसी भानु प्रभा
छू जाती थी जिस भी तन को ,
मानव पंछी तरु पादप सब
उठ पड़ते बस उड़ जाने को |

रोज़ सुबह ऐसे ही आयें
रवि किरणे इठलाती चंचल ,
आलोकित कर जाएँ धरा को
कर जाएँ हर मन को निर्मल |


------------ निपुण पाण्डेय "अपूर्ण"

6 टिप्पणियाँ:

बेनामी,  गुरुवार, 1 जुलाई 2010 को 10:05:00 pm IST बजे  

पढकर मन खुश हो गया । सानदार प्रस्तुती के लिऐ आपका आभार


सुप्रसिद्ध साहित्यकार व ब्लागर गिरीश पंकज जीइंटरव्यू पढेँ >>>>
एक बार अवश्य पढेँ

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' शुक्रवार, 2 जुलाई 2010 को 6:26:00 am IST बजे  

बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति!
--
आपके ब्लॉग की चर्चा तो यहाँ भी थी!
http://charchamanch.blogspot.com/2010/07/201.html

दिगम्बर नासवा सोमवार, 5 जुलाई 2010 को 1:05:00 pm IST बजे  

फिर एक अनूठी लहर उठी
वसुधा पल भर में महक उठी ,
हर कण, तन मन जीवन में
स्वर्ण रश्मि हो मुखर उठी ..

अनुपम रचना ... बहुत सुंदर अभिव्यक्ति है ...

संगीता स्वरुप ( गीत ) सोमवार, 5 जुलाई 2010 को 5:50:00 pm IST बजे  

मंगलवार 06 जुलाई को आपकी रचना ..सवाल ... चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर ली गयी है आभार

http://charchamanch.blogspot.com/

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