प्रथम किरण सूरज की...
अलसाई सी बैठी थी कब से
डूब गयी थी किस जग में ?
तोड़ निशा के बंध घनेरे
प्रथम किरण जो आई नभ में |
मेघों का भी दंभ ढह चुका
पुलकित हो आह्लाद कर उठा,
सज्जित हो फिर रक्त वर्ण में
नभ सारा ऐसे दमक उठा |
फिर एक अनूठी लहर उठी
वसुधा पल भर में महक उठी ,
हर कण, तन मन जीवन में
स्वर्ण रश्मि हो मुखर उठी |
रह रह कर नव रंगों में ढल
नाच उठे आशाओं के दल ,
मन विस्मृत सा देख रहा बस
क्या होने को है अगले पल |
गहन निशा की एक थपकी से
गुम सुम सी जो ओस बनी थी,
अभिलाषा वो लहक उठी थी
रवि मंडप को निकल पड़ी थी |
कोमल सी ऐसी भानु प्रभा
छू जाती थी जिस भी तन को ,
मानव पंछी तरु पादप सब
उठ पड़ते बस उड़ जाने को |
रोज़ सुबह ऐसे ही आयें
रवि किरणे इठलाती चंचल ,
आलोकित कर जाएँ धरा को
कर जाएँ हर मन को निर्मल |
------------ निपुण पाण्डेय "अपूर्ण"
6 टिप्पणियाँ:
पढकर मन खुश हो गया । सानदार प्रस्तुती के लिऐ आपका आभार
सुप्रसिद्ध साहित्यकार व ब्लागर गिरीश पंकज जीइंटरव्यू पढेँ >>>>
एक बार अवश्य पढेँ
बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति!
--
आपके ब्लॉग की चर्चा तो यहाँ भी थी!
http://charchamanch.blogspot.com/2010/07/201.html
waah....
सुन्दर प्रस्तुति....
फिर एक अनूठी लहर उठी
वसुधा पल भर में महक उठी ,
हर कण, तन मन जीवन में
स्वर्ण रश्मि हो मुखर उठी ..
अनुपम रचना ... बहुत सुंदर अभिव्यक्ति है ...
मंगलवार 06 जुलाई को आपकी रचना ..सवाल ... चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर ली गयी है आभार
http://charchamanch.blogspot.com/
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