बुधवार, 24 अगस्त 2011

रे मन...

मन रे !
तोरी ना थाह मिले ...
मन रे !
तोरी ना थाह मिले ,
भटक भटक कर 
कौन दिशा में
घूम घुमाये कौन डगरिया
फिर मुड़ मुड़ जावे
कौन से रास्ते
मन रे ...
तोरी ना थाह मिले 

जो मन की सुनो 
जो मन की कहो
तो जान लो ये मन
नाच नचाये  
ये तो दिखलावे 
खेल नए और
अजब अनूठे 
मन रे! 
तोरी ना थाह मिले 

कभी मुसकाये
हँसते हँसाते
गाता ही जाए 
फिर क्यों नम ये
ओस सा गुमसुम. 
मन की नगरिया 
का नित मौसम 
रंग भरा भी और बेरंगा
मन रे !
तोरी ना थाह मिले  ...

कोई ना जाने
कोई ना समझे
जो बूझे तो
उलझा उलझा ही जाए
मन के भरोसे
बैठे कोई कैसे
अनबूझी सी
एक पहेली ,
जो
बूझे सो पछताय
मन रे !
तोरी ना थाह मिले ....


................. निपुण पाण्डेय "अपूर्ण " 

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कविता by निपुण पाण्डेय is licensed under a Creative Commons Attribution-Noncommercial-No Derivative Works 2.5 India License. Based on a work at www.nipunpandey.com. Permissions beyond the scope of this license may be available at www.nipunpandey.com.

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