बुधवार, 31 दिसंबर 2008

नवल वर्ष है...

नवल वर्ष है
नवल हर्ष हो
नवल उमंगें
क्रांति नवल हो |

नव आशाएं
नवल स्फूर्ति हो
महके तन मन
स्वप्न नवल हों |

मिटें पुराने
तम् के बंधन
नवल चेतना
मुस्कान नवल हो |

शोक रोग भय
सब धूमिल हों
नव अभिलाषा
उत्साह नवल हो |

उन्नति पथ को
पकड़ चला चल
गीत नए गा
संकल्प नवल हों |

नवल भोर है
नूतन किरणे
सिंचित इनसे
प्राण नवल हो |

देख शिखर को
कर नव आरोहण
नवल वर्ष में
सब मंगल हो
सब मंगल हो.......


------------- निपुण पाण्डेय "अपूर्ण"

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शनिवार, 6 दिसंबर 2008

अभी तो भोर है सफर की...

यह कविता हिंद युग्म पर भी प्रकाशित है |
http://kavita.hindyugm.com/2008/10/nipun-pandey-very-first-poem.html

आज कुछ अलग है,
पहले भी हलचल थी
पर दबा दी गई|
शायद वो क्षणिक ही थी,
पर आज कुछ अलग है,
वेदना तीव्र है,
कुछ भय सा भी है,
कुछ बेबसी है,
मन क्षुब्ध सा है,
धमनियो में विद्रोह है,
कुचल रहा हूँ ,
फ़िर भी कहीं
निराशा का स्वर है,
पर अभी तो भोर है सफर की ,
फ़िर ऐसा क्यों है ......


मन में ऊहापोह है,
विचारो में उथल-पुथल है ,
भावनाओ का सागर उफान पर है,
भय है कहीं
किनारों को काट न दे,
मेरा कुछ अंश
बह न जाये,
मैं, मैं न रह जाऊँ,
फ़िर कहीं
मैं अकिंचन
इन सब की तरह
निर्जीव न बन जाऊँ,
और अपनी तरह
लोगों के चेत को बस
जाते हुए देखता न रह जाऊँ|

नहीं बनना मुझे निर्जीव,
नहीं खोना है मुझे
मेरे किसी अंश को,
विद्रोह है कहीं
पर अब नहीं दबाऊंगा उसे ,
इस मोड़ पर आकर
फ़िर कुचलना नहीं है इसे,
अब नहीं भागूँगा इससे,
अब कुछ करना ही होगा,
प्रश्न को हल करना ही होगा|

आज टाला गर इसे
बात ख़त्म न होगी,
फ़िर नासूर बन कर उभरेगी ,
आज विचार करना ही होगा ,
सही और ग़लत का,
अंतर में समाना ही होगा,
प्रश्न का उत्तर
खोजना ही होगा ,
पूर्ण हल
जाने बिना जाने न दूँगा,
फ़िर इसे आने न दूँगा.......
इस सफर की साँझ तक
फ़िर इसे आने न दूँगा.......
इस सफर की सांझ तक ........

---------- निपुण पाण्डेय "अपूर्ण"

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गुरुवार, 16 अक्तूबर 2008

सौरभ भइया ...............

कुछ पंक्तियाँ हमारे दोस्त सौरभ भाई के लिए :



आओ मिलाये एक शख्श से
ये अपने सौरभ भइया
सोच समझ कर ही करते
सब कुछ अपने सौरभ भइया

फ्रेंच कटे की दाढी इनकी,
उसपे दाल चिपकती रहती
घंटो घंटो शेव बनाते
पर टेडी की टेडी रहती

भूख कभी इनको ना लागे
पर पेट नहीं ये सागर इनका
कभी कहीं भी कुछ दिख जाए
बच ना सकता एक भी तिनका

दिन दिन भर ये फैले रहते
ख्वाब हजारो बुनते रहते
कहते हमसे सोये हैं ये
पर पैर हमेशा हिलते रहते

वैसे तो ये हम सब जैसे
बात सभी ये सब सी करते
पर जो मिल जाए कोई लड़की
बदल जाते ये पलक झपकते

ना जाने ऐसा क्या हो जाता
काबू ख़ुद पे ना रख पाते
लड़की देख बदलते हैं ये
बचपन से ही, ख़ुद ही कहते

कपट नहीं, ना कोई द्वेष है दिल में
सबसे अच्छी बातें करते
पर अन्दर कुछ तो है इनके
कोई ना जाने, क्या सोचते रहते

मूड अगर हो अच्छा इनका
खर्चा ऐसा, ज्यूँ राजा जग के
पर जब सब कुछ हो जाता
पछताते, ये क्या कर बैठे ?

सोच समझ ये सब कुछ करते
पर सोच कभी ना पाते
जो सब कहे ऐसा प्लान बना है
पहला जवाब ना में ही देते

कुछ बातें ऐसी भी इनमें
जो जमीन से जुड़े ये लगते
सोने जाते तो गद्दे में होते
सुबह, गद्दा छोड़ फर्श पे मिलते

अपने टिक्कू , सौरभ भाई की
कुछ ऐसी है मस्त कहानी
माफ़ करो, हम दोस्त ही ठहरे
कुछ ग़लत हुआ 'गर मेरी जुबानी ......


--------------- निपुण पाण्डेय "अपूर्ण"

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रविवार, 12 अक्तूबर 2008

जीवन पथ...

जब से पैदा हुआ
चला जा रहा है
किधर जा रहा है
नहीं जानता है
बस जा रहा है
क्या चाहता है
नही जनता है
चला जा रहा है
जाना उसको कहाँ है
अपनी मंजिल कहाँ है
बस चला जा रहा है
जिया जा रहा है

जीवन ये पथ है
बस यही जानता है
जिया जा रहा है
जिया जा रहा है
कुछ पाने की आशा
बढ़ा जा रहा है
पर पाना है किसको
नही जनता है
बस चला जा रहा है
जिया जा रहा है

सोचता है एक पल
मिलेगी वो मंजिल
पर है क्या वो मंजिल
उसे क्या पता है
थमता है पल भर
ग़लत जा रहा है
इधर देखता है
उधर देखता है
सब जा रहे हैं
फ़िर चला जा रहा है
जिया जा रहा है

मिलेगा कभी गर
समय चार पल का
सोचा है सोचेगा
मन का रस्ता किधर है
खुशी का वो इक पल किधर है
दुनिया के मेले मैं
लोगों के रेले मैं
इतना मौका कहाँ है
कि सोच पाए किसी दिन
फ़िर चला जा रहा है
जिया जा रहा है

जीना है 'गर तो
आगे बढ़ते ही जाना है
आगे का मतलब
उसे क्या पता है
आगे बदना जो समझा
वो पीछे ही भागा
किसके पीछे वो भागा
कहाँ जानता है
फ़िर भगा जा रहा है
जिया जा रहा है

हैं सब भागते वो
भी भगा जा रहा है
कि पूछे किसी से
कहाँ जा रहा है
न उसको पता है
जो उसके है आगे
न उसको पता है
जो पीछे चला है
बस चला जा रहा है
जिया जा रहा है

पथिक एक ऐसा
इधर आ रहा है
देखो उसे फ़िर
चला जा रहा है
क्या जीवन का मतलब
समझ पा रहा है
क्या पथ की नियति को
समझ पा रहा है
किसे खोजता है
किधर खोजता है
बस चला जा रहा है
जिया जा रहा है

'ग़र न आज भागे
तो दुनिया के ताने
वो जिम्मों का बोझा
अपने सर पे लिए है
ख्वाबों को अपने
सिरहाने दबा के
किसके ख्वाबो के पीछे
चला जा रहा है
जिया जा रहा है

कभी पूछता है
वो ख़ुद से क्या
उसको मंजिल पता है
तभी देखता है
पिछला पथिक भी
बढ़ा जा रहा है
अगले ही पल
फ़िर चला जा रहा है
जीया जा रहा है

कभी सोचता है
समय ग़र मिले तो
वो अगले से पूछे
कहाँ जा रहे सब
क्यों वो जा रहा है
कहाँ जा रहा है
तभी देखता है
पिछला आगे निकल जा रहा है
फ़िर बढ़ा जा रहा है
जीया जा रहा है

----- निपुण पाण्डेय "अपूर्ण"

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एक वादा ......

एक वादा ......
जो निभाने से पहले ही भूल गए
वो वादा
जिसे तुम तकिए में डाल कर सो गए
वो वादा
जो मुझे उम्मीद की किरण दिखा गया
वो वादा
जो उषा की लाली की तरह सपने सजा गया
वो वादा
जिसके सहारे जीवन के ताने बाने बुनने की सोची थी
वो वादा
जो वक़्त आने पे जीवन का अर्थ बन सकता था
वो वादा
जिसका सपना देख पथराई आँखें भी गुनगुना उठती थी
वो वादा .............
हाँ वो वादा
और तुम वो वादा कर के भूल गए

वो वादा
जो मेरे जीवन की डोर थी.
वो वादा
जो मेरे जीवन की आशा थी
वो वादा
जो कुछ कर जाने की अभिलाषा थी
वो वादा
मेरे ख्वाबो की एक हसीन परछाई थी
वो वादा
उम्मीद थी, मेरे भरोसे की सच्चाई थी
वो वादा
जो शायद मेरे जीवन की इकलौती कमाई थी
वो वादा .....
हाँ वो वादा
और तुम वो वादा कर के भूल गए

वो वादा
पर कैसे तुम वो भूल गए
वो वादा
क्या तुम्हें कुछ याद आया
वो वादा
जानता हूँ मैं, कब का भुला चुके हो
वो वादा
जिसे याद करने की तुमको तमन्ना ही नहीं
वो वादा
हाँ वो वादा
जो तुम तकिए में डाल के सो गए

अब जाओ , ना याद करो, मुझे जी लेने दो
इस वादे के ख्वाबो की झिलमिलाती तस्वीरों में
खो जाने दो
उस वादे के निभ जाने की आस में
वो वादा
हाँ वो वादा
जिसे तुम करके भूल गए.....

---------- निपुण पाण्डेय "अपूर्ण"

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खोये खोये...........

खोये खोये से रहते हो , क्या पाने की तुम्हें आस है
ना ख़ुद को खोना ,ना ख़ुद से खोना..
फ़िर भी खोना ..
इसमें भी कुछ बात है ....

दूर खड़ी हो मीलों मंजिल फ़िर उसमें खो जाना
ये भी क्या एहसास है ...
मैं नीलगगन की पंछी हूँ, ये मील तो मेरे पास हैं

ख़ुद से खोना, ख़ुद को खोना ...ये सबका अंदाज़ है
ख़ुद में खोकर देख जरा
कुछ है बाकी, जो ना तेरे पास है ?

सोच अगर कुछ यूँ हो जाता
सब खो जाते .
हाँ मैं, हाँ तू ,हाँ हाँ हम सब
कुछ कर जाने की आस में
जग मेरा ये गुलशन ही ना बन जाता

----------- निपुण पाण्डेय "अपूर्ण"

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क्या थे तुम, क्या हो गए.....

नाराज़ हो कि बस
अंदाज़-ऐ-गुफ्तगू बदला है
आज़ वो बात नहीं
हमने कल को टटोला है

क्या थे तुम, क्या हो गए
पूछो ज़रा अब आप से
कुछ यकायक हो गया
हुआ ज़ाहिर बदले मिजाज़ से

तुम समझते ही रहे
हमसे छुपा ले जाओगे
हम भी बस सोचा किए
फ़िर लौट आ ही जाओगे

पर अभी मन खीझता है
देखकर इस छद्म को
आज तुम बेपर्दा कर दो
अपने मन के द्वंद को

------------ निपुण पाण्डेय "अपूर्ण"

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यादें.............

यादें क्या है
एक अनन्त प्रवाह
जो बहता जाए
नित कल-कल
छल-छल
जैसे कोई सरिता |

यादें क्या हैं
मन का
वो कारवां
जो चलता ही जाए
प्रतिपल अविरल

कभी सताएं
कभी हंसाएं
कभी कुछ गुनगुनाए
नित नवीन से
रंग दिखा कर
कुछ अजीब से
रंग दिखा कर
गुम हो जायें

आयें मन में
गीत सुनाएं
खूब हंसाएं
अगले ही पल
फ़िर कुछ मन को
याद दिलाएं
फ़िर नयनो को
यूँ भर जायें
गुम हो जायें

यादें ना हो
जीवन क्या हो
सब भूला
कल को भूला
फ़िर कुछ आगे
क्या कर पायेगा


--------------- निपुण पाण्डेय "अपूर्ण"

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शनिवार, 11 अक्तूबर 2008

शब्द...

क्यों
सुन नहीं पाते
हम दूसरे के
मन की तरंगो को

क्यों नहीं कर पाते
महसूस
उन भावों को,
उस संगीत को,
नाड़ियों के उस
स्पंदन को,
जो उसके भीतर
है कहीं

क्यों होता है
कि हम शब्दों की
नींव पर
बनाते हैं रिश्ते ?

वो शब्द जो
खोखला कर देते
हैं कभी
ख़ुद इन रिश्तों को|

बिना शब्दों के
अगर समझ लें सब कुछ
जान लें सच
रिश्ते बनेंगे,
बिखरेंगे नहीं

क्यों उन शब्दों को
थामना
जरूरी हो जाता है,
क्यों
भावनाओं को जरूरत है
इस माध्यम की
शब्दों के,
इन शब्दों के सहारे
क्यों चाहते हैं
जड़ तक पहुंचना
जहाँ समझ ही
परे हो जाती है
ख़ुद समझ से

क्यों आख़िर
इन शब्दों के
मायाजाल में,
जिनका अर्थ ख़ुद
नहीं समझ पाते
हम भी,
फंस जाते हैं
हम ख़ुद ही ?

और ये अर्थ
खा जाते हैं
हमको
छलनी हो जाते हैं
वो रिश्ते
जो शुरू हुए थे
बिन शब्दों के,
सिर्फ़ भावनाओ से |



------------ निपुण पाण्डेय "अपूर्ण"

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ठहराव...

कोई अब्र बरसा होता
कोई घटा छाई होती
कुछ और नहीं
तो बस
कोई बिजली कहीं
कौंध पड़ी होती

समय के इस
चक्र को
निरंतर गतिमान
रहना ही था
जानता था मैं
फ़िर भी

कुछ हलचल हुई होती
कहीं मुझ मैं ही
कोई स्पंदन तो होता
कोई लहर
उठ पड़ी होती
चाहे
परिणित हो जाती
किसी तूफ़ान में


पर, समय
मुझसे जयादा बलवान था
वो गुजर तो गया
पर आज भी
किसी हवा के साथ
पलट जाता हूँ कभी
कुढ़ पड़ता हूँ
स्वयं से ही
शिशु की तरह

वो ठहराव था
कुछ पल का
जो थोड़ा लंबा हो गया
पर खुश हूँ आज
वो ठहराव
जीवन का
आख़िर गुजर तो गया .

------------ निपुण पाण्डेय "अपूर्ण"

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गुरुवार, 9 अक्तूबर 2008

मुखौटा..................

चाहता हूँ अब तक
मैं इन्सां से मिलना
मुझे जानना है
कैसा इंसान होता

सुना था धरती में
बसते हैं इन्सां
जो देखा इन्हें
सारे लगते मुखौटा

मुखौटों की जैसे
पूरी दुनिया बनी है
हर शख्श जो मिलता
वो लगता मुखौटा

बस इतना नहीं
सबका अपना मुखौटा
मुखौटा यहाँ जैसे
मेले में बिकता

एक ही सख्श औ'
हजारों मुखौटे
कपड़ो के जैसे
बदलता मुखौटा

मुझसे मिला तो
अलग है मुखौटा
तुझसे मिला तो
अलग है मुखौटा

दफ्तर गया तो
नया है मुखौटा
घर पर जो बैठा
पहना घर का मुखौटा

मुखौटा लगाता कि
सबको दे धोखा
एक दिन यूँ ख़ुद पे
पड़ा भारी मुखौटा

आज ऐसा दिखा दिन
न जाने वो ख़ुद को
चाहे अगर तो भी
न हटता मुखौटा

इन्सां यहाँ क्यों
ख़ुद ही को भूला
वो ख़ुद भी ये जाने
सारे पहने मुखौटा

हैं जानते सब
सबका असल क्या
फ़िर क्यों न जाने
सब लगाते मुखौटा


बचपन से मैंने
सीखा यही बस
जीना यहाँ तो
लगा ले मुखौटा

मुखौटा लगा के
सबको धोखा तू देना
सच गर दिखाया
तो हर कोई कुचलता

कोशिश किया में
पहन लूँ मुखौटा
है काम मुश्किल
मुझसे न होता

देखूंगा में भी
मिले कोई मुझ सा
दिखे कोई ऐसा
जो न पहने मुखौटा .................

-------------------------- निपुण पाण्डेय "अपूर्ण "

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फ़िर से एक बार ........

आओ बैठें जरा
कुछ सुनें
कुछ सुनायें
कुछ नए नगमे गायें
कुछ नई बात बतायें
फ़िर कुछ झिलमिल चादरें
डाल लें ख़ुद पे

वक़्त बहुत बीता
कुछ सिया
कुछ फट सा गया
आओ फ़िर एक बार
एक पैबन्द लगा दें
इसपे
फ़िर से सी दें इसे ......

------------ निपुण पाण्डेय "अपूर्ण"

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मंगलवार, 7 अक्तूबर 2008

फ़िर वही जंग है..................

मुंबई... .सपनो का शहर .........कुछ पंक्तियाँ यहाँ के जीवन और जीवन रेखा .........."मुंबई लोकल ट्रेन " पर...



फ़िर नई भोर है
कसमसाते हुए
आँख खुल ही सकी
फ़िर वही जंग है
नित नया रंग है
बरसों से संग है

ऊँची ऊँची खड़ी
जितनी ये कोठियाँ
चाँद से बस जरा
दो अंगुल फासला
इनके वाशिन्दों की
नित नई जंग है
बरसों से संग है

नीचे उतरे सभी
दौड़ते भागते
राह में निकले तो
भीड़ को चीरते
नित नई जंग है
बरसों से संग है

घुस गए कतार में
बस की राह देखते
टुकटुकी लगी हुई
बैठना है चाहते
फ़िर वही जंग है
बरसों से संग है

बस से उतरे जिधर
रण की भू आ गई
देख कर विजय रथ
दौड़ने सब लगे
अब वही जंग है
बरसों से संग है

कान थे खुले हुए
आँख थी खुली हुई
सोचते सोचते
ट्रेन भी आ गई
अब वही जंग है
बरसों से संग है

झोले जितने भी थे
सीने से लगा लिए
बटुए सबने कहीं
चुपके से छुपा लिए
फ़िर वही जंग है
बरसों से संग है

रण की भेरी बजी
कमर सबने कसी
साँस अन्दर भरी
सीने चौडे किए
फ़िर वही जंग थी
बरसों से संग थी

कूदते फांदते
भरने उसमें लगे
जान पर खेल कर
कुछ शिखर पर चढ़े
फ़िर वही जंग थी
बरसों से संग थी

देखते देखते
भर गया कारवां
ऐसे चिपटे सभी
भंवरे फूलों में ज्यों
फ़िर वही जंग है
बरसों से संग है

---------- निपुण पाण्डेय "अपूर्ण"

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फ़िर आ गया हिन्दी दिवस ...

अभी कुछ दिन पहले मेरे कार्यालय मैं हिन्दी दिवस मनाया गया
तो उस पर कुछ पंक्तियाँ बन पड़ी थी
सविता जी हमारे यहाँ राजभाषा प्रभारी हैं...........


फ़िर आ गया हिन्दी दिवस
सविता जी बोली
खूब मिलेगा इनाम
गर कविता जो बोली

खुश था मैं और
सब दोस्त बोले
मौका है निपुण
थोड़ा पैसा बना ले

इस खुशी के बीच
अन्दर से आवाज़ आई
लगा कुछ कहने को
हिन्दी मेरे साक्षात आई

वो बोली , शर्म कर निर्लज्ज !
एक तो हिन्दी दिवस मना रहा है
और, इस झूठी जीत का तमगा
इतनी खुशी से हिला रहा है

थोडी सी हिन्दी जान
क्यों इतना इतरा रहा है
हिन्दी तेरा अस्तित्व
क्या इसे झुठला रहा है

माँ ने दिया जो तुझको
सारा प्यार हिन्दी
पिता के हर संस्कार का
आधार हिन्दी

भारतीयों के भाल का
अभिमान हिन्दी
सदियो पुराना देश का
सम्मान हिन्दी

देख कर अपनी ये हालत
आज कुछ यूँ लग रहा
मर चुकी कब की दिलों में
बरसी तू मेरी मना रहा

ये नहीं सोचा था मैंने
कि तू इतना कमजोर होगा
पश्चिम के एक झोंके मैं यूँ
भूल ख़ुद को, उड़ पड़ेगा

देखकर यह करुण क्रंदन
लज्जित हुआ,ख़ुद से मैं बोला
सोचता था हिन्दी, तेरी सेवा करूंगा
इस झोंके के वेग को , शायद मैं झेल लूँगा

पर, इस लहर ने मुझको भी
कुछ इस तरह बहा दिया
नाम था तब "निपुण" मेरा
आज मैं भी "निपुन" कह गया

मैं नहीं चाहूँगा इस कविता पे मेरी
एक भी ताली बजे
खुशी होगी मुझे, एक भी सीने मैं जब
शूल बन कर ये चुभे

------------ निपुण पाण्डेय "अपूर्ण"

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मेरी सुबह....................

वो रात जो मैंने सागर किनारे ......एक नई शुरुवात की थी जीवन की................

रात रात भर जागता रहा
कुछ भूलता कुछ चाहता रहा
उन अलावों की गर्मी भी
यादों की सर्दी को बुझा न पाई

सूरज के दरिया में जाने के बाद
साहिलों पे खड़ा खड़ा
उस सुरमई शाम की लाली को
बस एकटक देखता रहा

धुंधला सा आसमान था
पंछी चहचहा रहे थे
शायद अपने नीड़ को चले
सांझ के गीत गुनगुना रहे थे

में उस दिन भी वहीँ
उसी रेत पे बैठा बैठा
कभी सागर कभी ख़ुद को
देखता रहा, कुछ खोजता रहा

वक्त की शाखों से वो सूखे पत्ते
वो मुरझाये फूल चुनता रहा
लगता था शायद दरिया का पानी
वो भीनी हवा , इन्हे खिला देगी कभी

रात भर बैठ वहीँ, बीते जीवन की
उन गांठो को खोलता रहा
कुछ सुलझ गई , और बाकी
अनसुलझी गांठों को तोड़ता रहा

बस कुछ सोचता रहा, चाहता रहा
कुछ पाया और कुछ खोता रहा
बाकी जान निरर्थ, झुठलाता रहा
इस मंथन में वक्त बीतता रहा

दूसरी तरफ़, वो रौशनी घरो की
देर रात तक जो झिलमिला रही थी
धीरे धीरे बुझने लगी थी
सब सो रहे थे
पर शायद मेरी सुबह हो रही थी

------------निपुण पाण्डेय "अपूर्ण "

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एक कशमकश मन में ..............

उलझने ख़ुद यूँ ही
आपस में उलझी हुई सी
बातें हजारो दिल में
ख़ुद से अनकही सी

कुछ सवाल साये में अपने
अपना ही ज़वाब खोजते
कुछ भरम ऐसे भी जो
चाह कर भी न टूटते |

तिशनगी ऐसी रगों में
कुलबुलाती खुदबखुद
खामोशियाँ तो बेजुबां
पर पूछती इनका सबब

कुछ बगावत है कहीं तो
इन सवालो के दरमियाँ भी
कुछ तो अपनी उलझने हैं
कुछ जवाबो की बेबसी भी

आस ऐसी कुछ मचलती
राख भी मानो सुलगती
कुछ हकीक़त ख्वाब अपने
कर गुजरना चाहती

------------ निपुण पाण्डेय "अपूर्ण"

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मैंने भी देखा है.....................

पता नहीं क्या लिखना चाहता था .......कुछ लिख रहा था पर मुझे समझ नहीं आ रहा था कि क्या विचार आ रहे हैं ................ अंततः कुछ ऐसा बन पड़ा...................


हाँ मैंने भी देखा है
मैंने भी वो सब देखा है
सहिलो से दूर तलक
फैले उस सागर के
अनंत प्रवाह को
देखा है
लोगों को उसका आनंद लेते

संध्या के
उस सिंदूरी आकाश को
फ़िर चाँद को आते
और झिलमिलाते तारो को
मैंने भी देखा है

देखा है वो
सर्दी की रात में
ठिठुरते बच्चो को
सूनी सड़क के किनारे
अगले दिन का इंतज़ार
करती उस माँ को

मैंने देखा है
प्लेटफोर्म पर पड़ी हुई
उस लाश को
जिसकी हड़्डियां
कुछ कहना चाहती हैं
हर आते जाते से

मैंने देखा है
पलकों से बाहर
निकली हुई उन आँखों को
जिनका ख्वाब
बस एक रोटी है
अगली सुबह की

हाँ देखा है
मैंने वो सब
आज भी देख रहा हूँ
पर कब तक देखूँगा

मेरा भी अन्तर
सहमता है उस पल
कचोटता है कुछ
मुझे भी
पर जानता हूँ
केवल सोच लेने से
कुछ नहीं होता

चाहता हूँ मैं भी
अगली किरण ऐसी आए
एक ऐसा तेज़ हो
सब उसमें घुल जाए

वो दिन ऐसा हो
सब साहिल पे खड़े हो सके
शाम की सुन्दरता
सबको शीतल कर सके

सोचता हूँ मैं भी
शायद कुछ करुँ
कुछ कहूं
पर शायद कमजोर हूँ
कहीं कुछ भय है
पर जरूरत कुछ और है

चाहता हूँ कुछ
और लिख सकूं
पर विचार जा चुके हैं
जानता हूँ
लिखने से भी
अब कुछ न होगा
कुछ और है
जो सोचना होगा
जो करना होगा......

----------- निपुण पाण्डेय "अपूर्ण "

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खाली सा है कुछ कहीं..................

कुछ कमी है मुझ में ही .....लगता है कुछ और हो .......एक छोटा सा कुछ जिसके बिना में अधूरा सा लगता हूँ ......पर पता नहीं वो क्या है ...........................

खाली सा है कुछ कहीं
जाने दिल मैं ही है
जाने मन मैं कहीं
पर कुछ तो है ही कहीं

चाहता हूँ मैं कुछ
सोचता हूँ मैं कुछ
करता भी हूँ कभी ...
फ़िर भी खाली सा है कुछ कहीं

सूना सूना सा है
मन का ये कारवां
चलता रहता है यूँ
गाता रहता है क्यों
फ़िर भी खाली सा है कुछ कहीं

सोचता रहता हूँ
खोजता रहता हूँ
है वो क्या , क्यों है गुम सा कहीं
फ़िर भी खाली सा है कुछ कहीं

मन के भीतर ही है
छुप गया सा कहीं
या फ़िर मुझसे अलग जा गिरा है कहीं
वो जो खाली सा है कुछ कहीं

सोचता हूँ है क्या
था जो मुझ मैं कभी
है क्या अब भी वहीँ
फ़िर भी लगता मुझे
कोई कोना है जो मुझ मैं खाली कहीं

ये भरम तो नहीं
ना छलावा कोई
लगता है कुछ मिले, और भर दे उसे
जो कुछ भी मुझ मैं खाली कहीं .....

वो है क्या, ना पता
खोज लूँ मैं उसे, गर पता ये चले
है वो जीता कोई या अचर है कहीं
जिसकी कमी सी है उर मैं कहीं...

आज फ़िर खोजूंगा
हिय मे गोते लगा
शायद बैठा मिले
मुझसे खफा, कोप में वो वहीँ
मान जाए तो भर दूँ उसे
खाली कोने में, मुझ में है जो कहीं.....

---------------- निपुण पाण्डेय "अपूर्ण"

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काश......................

काश! तब कुछ बोल पाया होता
चाहे कुछ भी बडबडाया होता
तिलमिलाता देख खुद को सोचता हूँ
शायद उस रोज़ कुछ पाया होता

स्वपन देखे कई थे उस रोज़ मैंने
निशा के आने के पहले और बाद भी
कुछ अगर हिम्मत जुटा पाया होता
शायद उस रोज़ कुछ पाया होता

था वो क्या ? एक स्वप्न
या हकीक़त का घरोंदा
ओंठ गर उस दिन हिला पाया होता
शायद उस रोज़ कुछ पाया होता

देखकर ख़ुद की व्यथा
उस रोज़ भी यूँ झुंझलाया होता
एक लब्ज़ भी जुबान से गर निकल आया होता
शायद उस रोज़ कुछ पाया होता

-----------------निपुण पाण्डेय "अपूर्ण"

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गर मैं पंछी बन जाता....................

काश अगर कुछ यूँ हो जाता
मैं भी पंछी बन जाता
या फ़िर भ्रम के पंख लगा कर
दूर कहीं उड़ जाता

मीलो नाप नाप नभ के मैं
शायद फूला नहीं समाता
खोज कोई सुनसान जगह मैं
एक अपना नीड़ बनाता

इंसानों की इस बस्ती में रह
क्या क्या अनुभव पाए
कुछ खट्टे कुछ मीठे
हर दिन नया दिखाए

ब्रह्म पाश से बंधा हुआ हूँ
जीवन के इस मोह जाल में
अनचाहे भी जुडा हुआ हूँ
मानव की इस भेड़ चाल में

गर मैं पंछी बन जाता
नित नई उडानें भर पाता
देख देख फ़िर इन लोगों को
मन ही मन मुस्काता
'गर मैं पंछी बन जाता

---- निपुण पाण्डेय "अपूर्ण "

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प्रथम .......................

कविता चित्र हैं मन के
कविता दर्पण है भावनाओ का
या फ़िर
कविता कुछ बिखरे भावो को पिरोने का प्रयास है
पर कविता तो बस कविता है ..............................

मुझे एहसास नहीं था की जो मैं यदा कदा लिख पड़ता हूँ वो कविता है
पर मेरे कुछ मित्रो ने कुछ ऐसा कहा
यूँ तो यकीन अब तक नहीं है की ये कविता ही है पर एक प्रयास तो है
इस ब्लॉग में कुछ मन के विचार लिखने की सोच रहा हूँ.................

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