बुधवार, 30 जून 2010

सवाल....

कभी किसी अँधेरी गुफा में देखा है
कैसे लटके रहते हैं चमगादड़
और
टोर्च से निकलते ही
एक जरा सी रौशनी
उड़ने लगते हैं अचानक
ना जाने क्यों ?
ना कोई मकसद,
ना कोई मंजिल,
बस उड़ते रहते हैं |

बंद होते ही टोर्च
फिर लटक पड़ते हैं
जैसे हैं, जहाँ हैं, वैसे ही !

कभी अकेले बैठा हुआ
उतरता हूँ मैं भी
एक अँधेरे तहखाने में
अपने भीतर |

दिख पड़ते हैं
असंख्य चमगादड़ 'सवालों' के
बेतरतीब लटके हुए,

मुझे देखते ही
उड़ने लगते हैं बेलगाम !

कोई पकड़ लेता है
किसी दूसरे की दुम,
कोई गिराने लगता है
तो कोई
खींचता है दूसरे को
कोई काटने लगता है ,
कुछ लम्बे होने लगते हैं
कुछ गायब भी !

अगले ही पल
एक हलचल होती है
बाहर ,
सब खामोश
लटक पड़ते हैं
मेरे बाहर आते ही |

ना जाने
इन सवालों की भी कैसी आदत है
हमेशा
लटके ही रह जाने की !

-------------- निपुण पाण्डेय "अपूर्ण "

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रविवार, 27 जून 2010

राक्षस कौन ?

रहता था जब
शहर के बीच में
मेरी खिड़की से दिखती थी दूसरी खिड़की
और बालकोनी से दूसरी बालकोनी
घर के नीचे सड़क,
बड़ी बड़ी गाड़ियाँ
और आसमान तक बस
बालकोनी और खिड़कियाँ !

अगर मैं होता धनी
तो देख पाता बस वही,
ये तो मजबूरी ही थी कि
आ गया शहर से दूर

अब मेरी बालकोनी में
तोते भी बैठते हैं कभी , गौरैया भी
कबूतर फुदकते रहते हैं
सामने हरे भरे पेड़ और फूल |

थोड़ी दूर पर पहाड़ हैं
झरने भी फूट पड़ते हैं यहाँ
बारिश में !

कितना खुश हूँ मैं यहाँ !

लेकिन ,
एक पहाड़
अब बचा है आधा ही !
कोई निगल रहा है इसे
कुछ दिन बाद
मुझे यहाँ दिखेगी फिर
बालकोनी अपनी बालकोनी से

और नए घर में रहने वाला
देखेगा
पहाड़ को और पेड़ों को
उस पहाड़ के पार वाले

मैं भी यहाँ हूँ
क्योंकि निगल लिया है
यहाँ पर खड़े पहाड़ को
और मिल गया है ये घर !

सोचता हूँ
राक्षस कौन ?
ये शहर !
जो निगलता जा रहा है सब कुछ
या
आकांक्षा की मजबूरी तले दबा हुआ इंसान
और मैं खुद !

लिख रहा हूँ
क्योंकि आज खुश हूँ
और
दुखी हूँ कल के लिए
लेकिन
दोषी तो मैं ही हूँ
आज और कल के लिए !

---- निपुण पाण्डेय "अपूर्ण"

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कविता by निपुण पाण्डेय is licensed under a Creative Commons Attribution-Noncommercial-No Derivative Works 2.5 India License. Based on a work at www.nipunpandey.com. Permissions beyond the scope of this license may be available at www.nipunpandey.com.

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