सोमवार, 26 जनवरी 2009

फ़िर आया गणतंत्र दिवस ..

फ़िर आया गणतंत्र दिवस
इस वर्ष नवल आह्वान करें,
आओ जन जन के मन में
अब राष्ट्र प्रेम का भाव भरें |

आज अहम् को करें किनारे
और स्वयं से बात करे ,
करे देशहित में कुछ चिंतन
करना होगा मन का मंथन |

उनसठ साल अब बीत गए
भारत जबसे गणतंत्र बना,
आओ सोच विचार करे अब
कितना तंत्र, स्वतंत्र बना ?

उन्नति पथ पर हुआ अग्रसर
भारत ने जब आजादी पाई,
कुछ तो अब भी शेष रह गया
आज़ादी पूरी ना मिल पाई |

आओ ख़ुद को देश से जोड़े
देश नही तो हम क्या हैं ?
राष्ट्र प्रेम में जो न समर्पित
फ़िर हम भारतवासी क्या हैं ?

दुःख दरिद्र मिटाए इससे
आतंक के साये का नाश करे,
भ्रष्ट , तंत्र के रखवालों से
अब सत्ता को आजाद करे |

जन जन से ही मिलकर बनता
प्रजातंत्र का ये नारा है ,
तो फ़िर हमने ही क्यों इसको
भूल, देश को दुत्कारा है ?

नए जोश से ओत-प्रोत हो
छब्बीस जनवरी खूब मनाई,
अब खेनी है देश की नौका
जाग युवा, अब बारी आई |

अब पुनः विचार जरूरी है
कुछ नव निर्माण जरूरी है,
जन मानस को आज जगा कर
फूंकना प्राण जरूरी है |

उठो!आज फ़िर इस अवसर पर
पुनः एक संकल्प करें ,
जब तक देश खुशहाल न होवे
तब तक ना विश्राम करें |

गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनायें

---------- निपुण पाण्डेय "अपूर्ण"

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रविवार, 25 जनवरी 2009

चार लम्हे....

फ़िर नया एक जहाँ,
एक खुशरंग समां,
एक मौसम नया
बनाना चाहता हूँ,
वक्त तुझ से चार लम्हे
फ़िर चुराना चाहता हूँ |

हर शख़्स को खुशी में
मुतरिब बनाना चाहता हूँ,
महफिलों के रंग लबों पे
अब सजाना चाहता हूँ ,

रंज-ओ-गम अब बस !
दोस्ती में सब भुलाना चाहता हूँ,
दूसरे में सबको यहाँ
ख़ुद को दिखाना चाहता हूँ,

बरसों के सूखे दरख्तों को
गुलशन में खिलाना चाहता हूँ ,
जंग में रूठे दिलों को
वस्ल के नुस्खे सिखाना चाहता हूँ ,

देख बन्दों को यहाँ
फ़िर मुस्कुराना चाहता हूँ ,
वक्त तुझसे चार लम्हे
फ़िर चुराना चाहता हूँ |

---------- निपुण पाण्डेय "अपूर्ण"

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गुरुवार, 22 जनवरी 2009

इस बार .....

फ़िर एक बार!!!!
जाने कब से
ये आँख मिचोली,
आना फ़िर जाना ,
बस शब भर की
मेहमान नवाजी ?

हर बार बस
आना और फ़िर
सिर्फ़
एक सफहे कि तरह
पलट जाना ,

बन सकता था तू
जिल्द
इस किताब का,
तस्वीर बन
टंग सकता था
मेरी दीवार पर ?

ये तो नहीं
कि मैंने
चाहा नहीं तुझे ,
ये भी नहीं
कि न था
मैं काबिल तेरे,
शायद
मेरी ही बेरुखी थी ,
जाने दिया
तुझे इस तरह |

पर
मंजर अब
बदल गया है,
जो आ गया है
आँख में तू ,
पलक झपकते
भाग नहीं पायेगा |

इस बार, ऐ ख्वाब !
तू जाने नही दिया जाएगा |

------निपुण पाण्डेय "अपूर्ण"

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रविवार, 18 जनवरी 2009

चल दिये चल दिये...... ..



चल दिये चल दिये
ख्वाब दिल में लिए,
सूखा सागर तो था
फ़िर भी बहते गए |

ख़ुद पे बस था यकीं
राहें सूनी मिली ,
मंजिलों तक सफर
कुछ कठिन ही सही |

कदम खामोश थे
खुश्क थे रास्ते ,
कोई उम्मीद थी
बढ़ चले आसते |

ये भी सोचा नहीं
राह है किस तरफ़,
हर कदम था पता
चाह थी उस तरफ़ |

कहने को बस यही
कुछ तो मिल जाएगा,
सुनते थे बस वही
तू न कुछ पायेगा |

कुछ मिले ना मिले
मज़िलों का पता ,
होगा बस ये गुमाँ
कर दिया, सोचा था |

रुक के 'गर जो कहीं
पीछे देखा कभी ,
होगा गम तो नही
चाहा बस, किया नहीं |.


--------- निपुण पाण्डेय "अपूर्ण"

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अस्तित्व...


समा जाना चाहता हूँ
कहीं,
खो जाना चाहता हूँ
किसी में,
पा लेना चाहता हूँ
कुछ|

फ़िर यकायक
रोम रोम में
उमड़ पड़ता है
एक प्रश्न,
एक ही प्रश्न
बिखर सा पड़ता है,
और अगले ही पल
सामने होती है
एक भीड़,


अनंत विस्तार लिए
वो भीड़
जान पड़ती है
एक फौज
असंख्य सवालो की,
कर देना चाहती है मुझे
बेबस
अपने जवाबो में ,

स्वयं से फ़िर
पूछने लगता हूँ
वही सारे प्रश्न ,
कहाँ जाना है ?
कहाँ खोना है ?
समा जाना है ,
तो किसमें ?

किंतु
जड़ में होता है,
हर प्रश्न की
फ़िर वही एक प्रश्न,
न जाने कब से
कतरा रहा हूँ
जिसके जवाब से,
दौड़ रहा हूँ
उससे दूर ,
फ़िर एक बार
खोजने लगता हूँ
अपना अस्तित्व
स्वयं में ही |

------------ निपुण पाण्डेय "अपूर्ण"

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