मंगलवार, 7 अक्तूबर 2008

फ़िर वही जंग है..................

मुंबई... .सपनो का शहर .........कुछ पंक्तियाँ यहाँ के जीवन और जीवन रेखा .........."मुंबई लोकल ट्रेन " पर...



फ़िर नई भोर है
कसमसाते हुए
आँख खुल ही सकी
फ़िर वही जंग है
नित नया रंग है
बरसों से संग है

ऊँची ऊँची खड़ी
जितनी ये कोठियाँ
चाँद से बस जरा
दो अंगुल फासला
इनके वाशिन्दों की
नित नई जंग है
बरसों से संग है

नीचे उतरे सभी
दौड़ते भागते
राह में निकले तो
भीड़ को चीरते
नित नई जंग है
बरसों से संग है

घुस गए कतार में
बस की राह देखते
टुकटुकी लगी हुई
बैठना है चाहते
फ़िर वही जंग है
बरसों से संग है

बस से उतरे जिधर
रण की भू आ गई
देख कर विजय रथ
दौड़ने सब लगे
अब वही जंग है
बरसों से संग है

कान थे खुले हुए
आँख थी खुली हुई
सोचते सोचते
ट्रेन भी आ गई
अब वही जंग है
बरसों से संग है

झोले जितने भी थे
सीने से लगा लिए
बटुए सबने कहीं
चुपके से छुपा लिए
फ़िर वही जंग है
बरसों से संग है

रण की भेरी बजी
कमर सबने कसी
साँस अन्दर भरी
सीने चौडे किए
फ़िर वही जंग थी
बरसों से संग थी

कूदते फांदते
भरने उसमें लगे
जान पर खेल कर
कुछ शिखर पर चढ़े
फ़िर वही जंग थी
बरसों से संग थी

देखते देखते
भर गया कारवां
ऐसे चिपटे सभी
भंवरे फूलों में ज्यों
फ़िर वही जंग है
बरसों से संग है

---------- निपुण पाण्डेय "अपूर्ण"

2 टिप्पणियाँ:

अमोल सुरोशे (नांदापूरकर) बुधवार, 8 अक्तूबर 2008 को 1:30:00 pm IST बजे  

Badi hi sundarata aur sahajta se aapne mumbai shahar ka tej jivan aapne shabdo me prakat kiya hai .. aapki kavita padhake .. Mumbai ka jivan aakho ke samne aa jata hai ..

Aapne dil ke khayalo ko shabdo me aache se prakat kiya hai aapne ..

aapki yah kavita muze bahot hi aachi lagi ..

mayank_madhav शुक्रवार, 10 अक्तूबर 2008 को 10:28:00 am IST बजे  

Yar sach me tune yeh poems hindi day pe kyun nahi sunaii...Local trains ki life aur usme sona,utarna,chaadna,,,bhagam bhaag..sab saamne aa gaya

कविता by निपुण पाण्डेय is licensed under a Creative Commons Attribution-Noncommercial-No Derivative Works 2.5 India License. Based on a work at www.nipunpandey.com. Permissions beyond the scope of this license may be available at www.nipunpandey.com.

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