राक्षस कौन ?
रहता था जब
शहर के बीच में
मेरी खिड़की से दिखती थी दूसरी खिड़की
और बालकोनी से दूसरी बालकोनी
घर के नीचे सड़क,
बड़ी बड़ी गाड़ियाँ
और आसमान तक बस
बालकोनी और खिड़कियाँ !
अगर मैं होता धनी
तो देख पाता बस वही,
ये तो मजबूरी ही थी कि
आ गया शहर से दूर
अब मेरी बालकोनी में
तोते भी बैठते हैं कभी , गौरैया भी
कबूतर फुदकते रहते हैं
सामने हरे भरे पेड़ और फूल |
थोड़ी दूर पर पहाड़ हैं
झरने भी फूट पड़ते हैं यहाँ
बारिश में !
कितना खुश हूँ मैं यहाँ !
लेकिन ,
एक पहाड़
अब बचा है आधा ही !
कोई निगल रहा है इसे
कुछ दिन बाद
मुझे यहाँ दिखेगी फिर
बालकोनी अपनी बालकोनी से
और नए घर में रहने वाला
देखेगा
पहाड़ को और पेड़ों को
उस पहाड़ के पार वाले
मैं भी यहाँ हूँ
क्योंकि निगल लिया है
यहाँ पर खड़े पहाड़ को
और मिल गया है ये घर !
सोचता हूँ
राक्षस कौन ?
ये शहर !
जो निगलता जा रहा है सब कुछ
या
आकांक्षा की मजबूरी तले दबा हुआ इंसान
और मैं खुद !
लिख रहा हूँ
क्योंकि आज खुश हूँ
और
दुखी हूँ कल के लिए
लेकिन
दोषी तो मैं ही हूँ
आज और कल के लिए !
---- निपुण पाण्डेय "अपूर्ण"
4 टिप्पणियाँ:
बहुत सुंदर कविता
यथार्थ का चित्रण्……………कल के चर्चा मंच पर आपकी पोस्ट होगी।
लिख रहा हूँ
क्योंकि आज खुश हूँ
और
दुखी हूँ कल के लिए
लेकिन
दोषी तो मैं ही हूँ
आज और कल के लिए !
Bahut sunder bhav .....!!
बढ़ती आबादी रहने को नही है ठौर। विलासिता की चाह ने, गैर इरादों वाली राह ने छीन ली है गरीबों की कौर। प्रकृति विरुद्ध छेड़ दी है लड़ाई। हर जगह देगी बालकनी दिखाई। हम सभी हैं इसके दोषी, आप ही क्यों? रचना है सुन्दर। बधाई।
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