रविवार, 10 जनवरी 2010

'सह्याद्रि' के लिए .....

बारिश कब की जा चुकी है,
अब सर्दियाँ भी जाने को हैं,
उसके तन से
एक एक वस्त्र झर रहा है |
ये पत्ते धागे हैं इन वस्त्रों के,
जिनमें लिपट
जब खड़ा हो जाता है वो,
मीलों दूर से
खींच लेता है नेत्रों को !
मिटा देता है !
ना जाने कितनों की थकान
दे देता है !
कितने अधरों को मुस्कान
और शांति
कितने मस्तिष्कों को !

लेकिन,
वो खड़ा है !
सदियों से,
उसी जगह,
वैसे ही!
और हमेशा रहेगा!
लड़ता है हर साल
सूरज से!
और फिर जीत जाता है !
उसे आदत सी हो गई है अब,
तप तप के कठोर हो चुका है बाहर से
लेकिन भीतर से ,
कितना कोमल , कितना सहृदय !

इन दिनों,
सब भूल गए हैं उसे !
कोई नहीं जाता उसके पास,
पर जब "सह्याद्रि"***
जीत जायेगा इस साल ,
फिर आएगा हरियाले कपडे पहन कर,
फिर उसकी सुध लेने जायेंगे
सारे मानव,
जमघट सा भी लगेगा !
और वो,
फिर से सबको सुख देगा !
क्योंकि उसने तो बस देना सीखा है!

जो समझो तो
कितना फर्क है !
इंसान और पहाड़ में,
शायद वो सिखा सकता है
मानवता, मानव को !

-----------------निपुण पाण्डेय "अपूर्ण"


***** 'सह्याद्रि' भारत में फैले हुए पश्चिमी घाट (विशाल पर्वत श्रंखला ) का उत्तरी भाग है ! अरब सागर के समान्तर एक दीवार की तरह स्थित प्रकृति का अनुपम वरदान सह्याद्रि अपने पर्वतों , घने जंगलों और एतिहासिकमहत्व के कारण बहुत प्रसिद्द है!

1 टिप्पणियाँ:

Pushpendra Singh "Pushp" बुधवार, 13 जनवरी 2010 को 3:00:00 pm IST बजे  

बहुत खूब
सुन्दर रचना
आभार

कविता by निपुण पाण्डेय is licensed under a Creative Commons Attribution-Noncommercial-No Derivative Works 2.5 India License. Based on a work at www.nipunpandey.com. Permissions beyond the scope of this license may be available at www.nipunpandey.com.

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