इन शहरों के भी क्या कहने....
इन शहरों के भी क्या कहने
बस रंग बिरंगे कपडे हैं पहने ....
दिन के उजियारे में जब सूरज तेज दिखाता है
धुंए के मोटे कम्बल को भेद कभी ना पाता है
वो चंचल किरणे जो कहीं ठिठोली करती हैं
बैठ वहीँ, शहरों को अब देख देख वो रोती हैं
इन शहरों के भी क्या कहने
बस रंग बिरंगे कपडे हैं पहने ....
यूँ तो शहर अनोखा और अगणित लोग यहाँ
जाने पहचाने चेहरे पर कोई अपना सा कहाँ
अपनी ही आपाधापी में यूँ सिमट गये सब
खुद से आगे सोच सके जो समय मिले तब
इन शहरों के भी क्या कहने
बस रंग बिरंगे कपडे हैं पहने ....
खामोश निशा जब ढक लेती है पूरे जग को
हर लेती है शहरों की चमक तब उस तम को
चमक बड़ी रंगीं होती, बाहर से बड़ा लुभाती
भीतर इसके घने बादलों की काली छाया होती
इन शहरों के भी क्या कहने
बस रंग बिरंगे कपडे हैं पहने ....
लगे दमकने ये रंगीन रौशनी जब धीरे धीरे
तम के रखवाले तब बिन आहट पैर पसारे
फिर लग जाता है मेला काली करतूतों का
और होने लगता सौदा किन किन चीज़ों का
इन शहरों के भी क्या कहने
बस रंग बिरंगे कपडे हैं पहने .....
------------ निपुण पाण्डेय "अपूर्ण"
5 टिप्पणियाँ:
Too good!!
Liked the line "जाने पहचाने चेहरे पर कोई अपना सा कहाँ" !!
Keep it up.
shahron ke her rang dikha diye.... bahut hi badhiyaa
बहुत ही भावपूर्ण निशब्द कर देने वाली रचना . गहरे भाव.
बहुत अच्छे शब्द चुने हैं...."
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