ख्याल...
बहुत दिनों बाद
फिर से जी चाहा कुछ लिखूं,
जंग खा गए लगते हैं
दिल-ओ-दिमाग के पुर्जे,
सूझ रहा है बहुत कुछ लेकिन
कुछ रुकता ही नहीं !
मक्खियों सी भिन-भिन है बस,
कुछ सुन नहीं पा रहा कि कौन
क्या कहना चाहता है आखिर!
अजीब सी हलचल है रूकती ही नहीं
बस हुए जाती है, हुए जाती है
फिर से जाल डालता हूँ एक
कम से कम छान ही लूं
बड़ी मक्खियाँ और छोटी अलग अलग
फिर मुश्किल शायद कुछ कम हो
ख्याल भी कैसे कैसे होते हैं
बड़े छोटे लम्बे पतले मोटे नाटे
कुछ काम के और कुछ एकदम बेकार !
------------- निपुण पाण्डेय "अपूर्ण"
2 टिप्पणियाँ:
अजीब सी हलचल है रूकती ही नहीं
बस हुए जाती है, हुए जाती है
फिर से जाल डालता हूँ एक
कम से कम छान ही लूं
बड़ी मक्खियाँ और छोटी अलग अलग
फिर मुश्किल शायद कुछ कम हो
बहुत सुन्दर
सबके मन का यही हाल है..पता ही इनदिनों जो कुछ भी अपने लिखा है वो मुझे अब तक का सबसे बेस्ट लगा है.
haan ekdum ekdum aisa hi kuch lagta hai jab aap koshish karte ho fir bhi kuch soch nai paate samajh nai paate aur aisi uljhan ko keh bhi nai paate...apni issi uljhan ko likha hai nipun ne .. aur kya khoob likha hai......
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