किस ओर ?
कायर खुद को झकझोर कहूँ
या विधि के विधान का जोर कहूँ?
हिला स्वयं के अंतर्मन को
श्वेत वस्त्र में लिपटा चोर कहूँ ?
चाहत को इस कह दूँ लोलुपता
और स्वयं को लोभी, अधीर कहूँ?
या मानव मन की आदत समझूँ
और ब्रह्म सृष्टी की रीत कहूँ ?
पल पल भटके मन जो मेरा
पागल समझूँ, इसको नादान कहूँ?
समझाऊं बैठ इसे हर पग पर
या बहने दूँ, उन्मुक्त समीर कहूँ?
इच्छा,अभिलाषा,सुख,आनंद
इन सबको कैसे मैं एक कहूँ ?
जूझ रहा हूँ इन सब से हर पल
किसको जीवन का लक्ष्य कहूँ ?
किस राह पकड़ कर है चलना
जिसको मैं फिर नव भोर कहूँ?
रह रह कर खुद में प्रश्न उमड़ते
मन को, चल किस ओर कहूँ ?
---------निपुण पाण्डेय "अपूर्ण"
4 टिप्पणियाँ:
किस राह पकड़ कर है चलना
जिसको मैं फिर नव भोर कहूँ?
रह रह कर खुद में प्रश्न उमड़ते
मन को, चल किस ओर कहूँ ?
--वाह भाई!! बहुत खूब कह गये!!
very nice poem..pata hai isko padh kar bacchan ki ek poem yad ati hai-"mera joor nahi chalta hai.."
अच्छा प्रयास है .......!!!
निपुण जी सुन्दर शब्द और गहरे भाव लिए इस रचना की जितनी प्रशंशा की जाये कम है...इस उम्र में आपकी लेखन दक्षता देख चमत्कृत हूँ....इश्वर से प्रार्थना है की माँ सरस्वती आप पर हमेशा यूँ ही मेहरबान रहे...
नीरज
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