तरकीब...
कोई तरकीब सोचता हूँ
सूझती ही नहीं
ताने बाने में इस
फिर निकल पड़ता हूँ जब
खोजने खुद को,
शौक है शायद मेरा,
अक्सर उग पड़ता है दिल में
वर्षा में उगने वाली
हरी घास की तरह,
फिर सूख जाता है ,
एक दिन फिर
उग पड़ता है
अनायास ही बिलकुल
जब कभी कोई एक डोर
आ जाती है पकड़ में,
उस डोर को पकड़
भिड़ाने लगता हूँ जुगत
दुसरे छोर तक जाने की,
लेकिन ये मकड़जाल
उलझता ही चला जाता है,
और फिर
फंस जाता हूँ कहीं
फिर सो जाता हूँ कुछ दिन,
शायद इस जाल को
कहते हैं जिंदगी,
और मैं नादान
सुलझाने लगता हूँ इसको,
फिर उलझता हूँ
और फिर उलझता हूँ
और ज्यादा उलझता हूँ
उलझता ही रहता हूँ
और
जीता रहता हूँ ज़िन्दगी ....
------------ निपुण पाण्डेय "अपूर्ण"
8 टिप्पणियाँ:
खूबसूरत लगी आपकी कविता और खुद की खोज।
हरदम उलझन को सुलझाना जारी रखें रोज।
यह जीवन का सत्य है हो अपनी भी खोज।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
bahut hi khubsoorat bhaw liye huye kawita........atisundar
शौक है शायद मेरा,
अक्सर उग पड़ता है दिल में
वर्षा में उगने वाली
हरी घास की तरह,
फिर सूख जाता है खूबसूरत लगी आपकी कविता
शायद इस जाल को
कहते हैं जिंदगी,
और मैं नादान
सुलझाने लगता हूँ इसको,
-पहचान तो गये, अब खुशी खुशी जिये जाओ. शुभकामनाऐं...
बढ़िया रचना!!
बहुत लाजवाब अंदाज़ है आपका
---
विज्ञान । HASH OUT SCIENCE
शायद इस जाल को
कहते हैं जिंदगी,
और मैं नादान
सुलझाने लगता हूँ इसको,
aisi hi zindagi hai,bahut achhi lagi rahcna/
आप सब लोगों का तहे दिल से शुक्रिया ....:)
बहुत ही भावपूर्ण खूबसूरत रचना .
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