समझ..बौनी हो गई है
अक्सर कुछ ऐसा होता है कि कुछ लिख रहा होता हूँ और मन भटकता हुआ कहीं और चला जाता है और अंत में कुछ और ही बन पड़ता है .... इस बार भी कुछ ऐसा ही हुआ ....
आज
समय के चक्र में
घूमता हुआ
आ चुका हूँ दूर
पर
अब चाहता हूँ लौटना |
लौटना चाहता हूँ ,
फिर से जीना चाहता हूँ ,
वो बचपन
जो छोड़ आया हूँ
कोसों दूर
वो यादें फिर से एक पल
पहुंचा देती हैं वहीँ |
वो ताम्र कलश के
जल सा निर्मल मन,
वो उगते सूर्य की
किरणों सा चंचल हृदय,
सब अपना मान लेता
वो निर्भय मन ,
वो अनूठी अभिलाषा
चाँद को छूने की,
और वो साहस कुछ भी
कर जाने का |
सोचता हूँ
वो निर्भयता थी
या विवेकहीनता
कोई भी ऊँगली पकड़
चल पड़ने का साहस
मुझमें अब तो नहीं ,
समझ बढ़ गई
राग भी बढा,
बैर भी बढा,
और साथ में बढ़ गया
अपने पराये का बोध,
अपना बनाने से कही ज्यादा
बढ़ गया
पराया करने का साहस |
मन , अब भी
अपराधबोध मैं है ,
फिर भी
क्यों नहीं निकल पड़ता
बाहर इस सब से?
क्यों पग पग होते
डगमग ?
कौन सा भय रोक देता है?
कई प्रश्नों का
उत्तर खोज रहा हूँ
शायद
समझ बढ़ी नहीं
बौनी हो गई है |
------------------ निपुण पाण्डेय "अपूर्ण"
2 टिप्पणियाँ:
its really vry touching.....nd ab mujhe bhi apne bachpan mein jaane ka mann kr rha hai :)
kavita padhi aur aisa laga ke haan yeh sab to shayad kahi life main maine bhi feel kia hai per kyunki main kavi nahi hoon aur apne vichar acche se nahi likh sakti jitne ki aap....good job.. all the best.
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