बंद आँखें....
खुली आँखों से तो
दिखता है सब !
पर इन दिनों
बंद आँखों से
देख लेता हूँ
कहीं ज्यादा |
खुली आँखें !
दिखाती हैं सच |
और बंद आँखें ?
दिखा देती हैं
उस सच के भी भीतर,
शायद अपना सच |
सुना था बंद आँखें
देखती हैं स्वप्न ,
अवास्तविक और भंगुर !
लेकिन...
मेरी दुनिया है
बंद आँखों के भीतर
और सच्ची दुनिया !!
जहाँ मैं, मैं होता हूँ
सारे चोगे उतारकर
मैं !
ऑंखें खोल कर
देख पाया बस
मुट्ठी भर दुनिया,
मुट्ठी भर लोग,
और न जाने
कितने चेहरे, अपने ही |
किन्तु
मैं परखता हूँ
स्वयं को ,
इन बंद आँखों में |
मैं सजाता हूँ
अपरिमित संसार
हाँ , अपरिमित और अनंत !!
निरंतर बदलता
मेरा संसार ,
कोई छल नहीं !
कोई भ्रम नहीं !
मेरे लिए
मेरे जीवन का सच,
बंद आँखों के भीतर
मेरे स्वप्न , मेरी दुनिया !
मेरी खुशियाँ !
हाँ !
मेरा सच !
---------- निपुण पाण्डेय "अपूर्ण"
3 टिप्पणियाँ:
हाँ सच ही लिखा है आपने कि जो कभी कभी खुली आँखें नहीं देख पाती उन्हें बंद आँखें बहुत आसानी से देख लेती हैं. उस सच से भी बड़े सच को जो खुली आँखों का सच है.
खुली आँखों से तो
दिखता है सब !
पर इन दिनों
बंद आँखों से
देख लेता हूँ
कहीं ज्यादा |...tabhi sach dikhta hai
किन्तु
मैं परखता हूँ
स्वयं को ,
इन बंद आँखों में ...
इंसान बंद आँखों से अपने आप को देखता है ....... बहुत ही सच लिखा है ....... प्रभावी और गहरी बात कही है ........
एक टिप्पणी भेजें