मेरा "मैं" !!!
सवालों से मेरा रिश्ता
थोडा गहरा है शायद
आज उलझ रहा था
फिर खुद से ही
पनपने लगा फिर एक सवाल
मैं दो हूँ क्या....
हाँ !
मैं एक नहीं, दो हूँ
और दोनों पूरा दिन
लड़ते रहते हैं बस !
अगर मैं कहूँ ऐसा
तो दूसरा कहे वैसा
कोई निश्चय हो
टांग अड़ा देता
खुद मैं ही, दूसरा वाला !
अगर ऐसा होता
दोनों दोस्त हो जाते
लेकिन नहीं !
इतनी उम्र बीत गई
नहीं हुए और शायद
हों भी ना कभी !
अगर ये एक होते
मैं, मैं नहीं होता
मैं यहाँ नहीं होता
मैं ऐसा नहीं होता
मैं क्या होता फिर ?
कैसा होता ?
शायद मैं वो करता
जो चाहता था
मैंने वही कहा होता
जो सोचा था सबसे पहले |
क्यों मजबूर होता हूँ
दूसरे मैं की खातिर ?
क्यों एक मैं, दबा देता है
दूसरे को
हमेशा !
बस !
लगा हूँ आज भी
मेल हो जाये बस !
फिर मैं करूँ , जो मैं चाहूँ!
मैं वो बनूँ , जो मैं चाहूँ !
मैं वो कहूँ , जो मैं चाहूँ !
कौन है ना जाने
मेरा दूसरा मैं ?
या
"मैं" ?
-----------निपुण पाण्डेय "अपूर्ण"
4 टिप्पणियाँ:
बहुत खूब..एक सुंदर अभिव्यक्ति..कविता अच्छी लगी..निरंतरता बनाए रखे..धन्यवाद
अपने आप से उलझती ........ मैं और मैं के बीच भटकती लाजवाब रचना है ........ एक द्वन्द है अपने आप का जो हमेशा चलता रहता है ..........
बहुत गहरी बात-बड़ी सशक्तता से कहा!! बधाई, निपुण!!
बहुत गहरी सुन्दर अभिव्यक्ति है एक संवेदनशील दिल की सोच शुभकामनायें
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