रविवार, 18 जनवरी 2009

अस्तित्व...


समा जाना चाहता हूँ
कहीं,
खो जाना चाहता हूँ
किसी में,
पा लेना चाहता हूँ
कुछ|

फ़िर यकायक
रोम रोम में
उमड़ पड़ता है
एक प्रश्न,
एक ही प्रश्न
बिखर सा पड़ता है,
और अगले ही पल
सामने होती है
एक भीड़,


अनंत विस्तार लिए
वो भीड़
जान पड़ती है
एक फौज
असंख्य सवालो की,
कर देना चाहती है मुझे
बेबस
अपने जवाबो में ,

स्वयं से फ़िर
पूछने लगता हूँ
वही सारे प्रश्न ,
कहाँ जाना है ?
कहाँ खोना है ?
समा जाना है ,
तो किसमें ?

किंतु
जड़ में होता है,
हर प्रश्न की
फ़िर वही एक प्रश्न,
न जाने कब से
कतरा रहा हूँ
जिसके जवाब से,
दौड़ रहा हूँ
उससे दूर ,
फ़िर एक बार
खोजने लगता हूँ
अपना अस्तित्व
स्वयं में ही |

------------ निपुण पाण्डेय "अपूर्ण"

3 टिप्पणियाँ:

अमोल सुरोशे (नांदापूरकर) रविवार, 18 जनवरी 2009 को 3:08:00 pm IST बजे  

बहोत आच्छे निपुण भाई .. कविता का हर शब्द बहोत खुबिसे आपकी भावनाओ को प्रकट करता है

varun रविवार, 18 जनवरी 2009 को 3:25:00 pm IST बजे  

आज की भीड़ में पिसते हुए मन की व्यथा को बड़े ही सहज रूप से प्रस्तुत किया है मित्र, जहा हर कोई सिर्फ
भागता हुआ ही दिख रहा है!!

Unknown बुधवार, 21 जनवरी 2009 को 12:39:00 pm IST बजे  

इस भागमभाग जिंदगी मे जब किस्सी के पास किस्सी के लिए समय ही नही , यही कुछ शब्द है जो यह बताते है के आप अकेले नही ...........बहुत अच्छा लिखा है ........

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