मेरी सुबह....................
वो रात जो मैंने सागर किनारे ......एक नई शुरुवात की थी जीवन की................
रात रात भर जागता रहा
कुछ भूलता कुछ चाहता रहा
उन अलावों की गर्मी भी
यादों की सर्दी को बुझा न पाई
सूरज के दरिया में जाने के बाद
साहिलों पे खड़ा खड़ा
उस सुरमई शाम की लाली को
बस एकटक देखता रहा
धुंधला सा आसमान था
पंछी चहचहा रहे थे
शायद अपने नीड़ को चले
सांझ के गीत गुनगुना रहे थे
में उस दिन भी वहीँ
उसी रेत पे बैठा बैठा
कभी सागर कभी ख़ुद को
देखता रहा, कुछ खोजता रहा
वक्त की शाखों से वो सूखे पत्ते
वो मुरझाये फूल चुनता रहा
लगता था शायद दरिया का पानी
वो भीनी हवा , इन्हे खिला देगी कभी
रात भर बैठ वहीँ, बीते जीवन की
उन गांठो को खोलता रहा
कुछ सुलझ गई , और बाकी
अनसुलझी गांठों को तोड़ता रहा
बस कुछ सोचता रहा, चाहता रहा
कुछ पाया और कुछ खोता रहा
बाकी जान निरर्थ, झुठलाता रहा
इस मंथन में वक्त बीतता रहा
दूसरी तरफ़, वो रौशनी घरो की
देर रात तक जो झिलमिला रही थी
धीरे धीरे बुझने लगी थी
सब सो रहे थे
पर शायद मेरी सुबह हो रही थी
------------निपुण पाण्डेय "अपूर्ण "
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