गुरुवार, 29 सितंबर 2011

सीमा पार

कितना सुखद है
उस सीमा के पार
जीवन
वहां चिंता है
पर इतनी तो नही
वहां भय है
पर इतना नही
वहां समाज है
पर इससे बहुत ज्यादा
वहां प्रेम है
अपनत्व है
सोहार्द है
यहाँ से कहीं ज्यादा
और स्वार्थ है
यहाँ से बहुत कम

वो सीमा जो
यहाँ से कुछ दूर
कुछ किलोमीटर दूर
खिंच गयी है स्वतः ही
और हम !
निरंकुश होते जा रहे हम
लगे हैं
इस सीमा को बढ़ाने में

लपेट लेंगे सबको
इसी घेरे में
और फिर लूटेंगे
खसोटेंगे
मरेंगे- मारेंगे
बना देंगे अपनी तरह
स्वार्थी
और फिर वो भी
शामिल हो जायेंगे
इसी लूट में
पहले लुटेंगे
फिर लूटेंगे !

जो लूट लेगा
दूसरे को
उसका 'क्लास' होगा
'सोसाइटी' में
जो लुट गया
वो लुटेरा बन जायेगा
उस 'क्लास' का
'क्लास' की नजर में
और हम सब हो जायेंगे
विकसित, 
अंधे विकसित नागरिक ....

----- निपुण पाण्डेय "अपूर्ण"

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मंगलवार, 27 सितंबर 2011

आर या पार

कामनाओं का संसार
भ्रांतियों से सरोबार 
मरीचिका में उदित
अस्तांचल अन्धकार

दिशाओं से गुंजित 
लोलुपता की झंकार
मानवता की मृत्यु
स्वार्थ की पैदावार

यहीं लेखा यहीं जोखा
'पुनर्जन्म थ्योरी' बेकार 
आज नही तो कल, यहीं 
फैसला , आर या पार |

-------निपुण पाण्डेय "अपूर्ण "

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रविवार, 18 सितंबर 2011

मैं....

मैं ख़ुद अपनी ही ख्वाहिश हूँ
मैं ख़ुद अपना ही मुंसिफ़ हूँ
मैं कश्ती हूँ , मैं दरिया हूँ
मैं ही अपना नजरिया हूँ
मैं जिन्दा हूँ तो मैं ही हूँ
जो मर जाऊँ तो मैं ही हूँ
विजेता हूँ तो मैं ही हूँ
पराजित भी मैं ख़ुद से हूँ
मैं मालिक हूँ, मसीहा हूँ
मेरा क़ातिल भी मैं ही हूँ |

------------------- निपुण पाण्डेय "अपूर्ण"

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बुधवार, 14 सितंबर 2011

हिंदी

हिंदी दिवस के अवसर पर सभी लोगों को हिंदी दिवस की शुभकामनाएं........ कुछ पंक्तियाँ आधुनिक हिंदी के अब तक के सफ़र पर ....


हिंदी , जन जन की भाषा है
कैसे बनी आज राजभाषा है
हिंदी का कैसे विस्तार हुआ
आधुनिक हिंदी का आकार हुआ ?

हिंदी है हमको जोड़ रही
एक सूत्र में हमको पिरो रही
इसकी भी अजब कहानी है
पर दुनिया इससे अनजानी है

भाषा ना बात विवाद की है
ये बात तो बस संवाद की है
कैसे जन्मी कैसे फिर पली बढ़ी
सोचो! हिंदी से एका कैसे बढ़ी ?

एक अलग ना यह भाषा हिंदी
भाषाओँ का तो मेल है हिंदी
"हिंदी" शब्द की गर बात कहो
फारसी से तुम शुरुवात कहो |

ईसा से कई सदी पहले , जब
वैदिक संस्कृत उपजी थी तब
फिर पाली निकली संस्कृत से
और प्राकृत निकली पाली से

फिर मानव विकास से साथ बढ़ी
ईसा के समय की ये बात बड़ी
पाली भाषा का जब विस्तार हुआ
अपभ्रंशों ने अपना आकार लिया

हिंदी, सिन्धी हो या पंजाबी हो
हो मराठी या फिर बंगाली हो
गुजराती भी आसामी, उड़िया भी
जननी सबकी बस पाली ही |

फिर मिली फारसी हिंदी के संग
उर्दू हिंदी का एक हुआ जीवन
वो समय था हिन्दुस्तानी भाषा का
दौर वो उर्दू - हिंदी की एका का

फिर हिन्दुस्तानी के दो रूप हुए
हिंदी और उर्दू जब अलग कहे |
देवनागरी लिखो , हिंदी कह दो
फ़ारसी में लिख , उर्दू कह दो |

तो सार यहाँ बस इतना है
सबकी जननी तो एक ही है
हैदराबादी हो या बम्बइया हो
हिंदी हिंदी में सब एक रहो !

मोरीशश चलो या सूरीनाम चलो
फिजी, गयाना या नेपाल कहो
हिंदी दुनिया में इतनी फ़ैल गई
एक तार में सबको जोड़ रही |

तुम कहते हिंदी भारत से दूर हुई
मैं कहता दुनिया में देखो फ़ैल रही
हिंदी अपनी, भविष्य की भाषा है
दुनिया में फैलेगी इसकी गाथा है

हिंदी का इतना ह्रदय विशाल हुआ
बढती ही रही, कोई भी काल हुआ
आओ हम भी इसमें एक हाथ लगें
हिंदी बोलें, हिंदी में कुछ बात करें |
आओ हिंदी को आबाद करें ,
हिंदी में थोड़ी बात करें ! हिंदी में थोड़ी बात करें ! 

                                                      ----- निपुण पाण्डेय "अपूर्ण "

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बुधवार, 24 अगस्त 2011

रे मन...

मन रे !
तोरी ना थाह मिले ...
मन रे !
तोरी ना थाह मिले ,
भटक भटक कर 
कौन दिशा में
घूम घुमाये कौन डगरिया
फिर मुड़ मुड़ जावे
कौन से रास्ते
मन रे ...
तोरी ना थाह मिले 

जो मन की सुनो 
जो मन की कहो
तो जान लो ये मन
नाच नचाये  
ये तो दिखलावे 
खेल नए और
अजब अनूठे 
मन रे! 
तोरी ना थाह मिले 

कभी मुसकाये
हँसते हँसाते
गाता ही जाए 
फिर क्यों नम ये
ओस सा गुमसुम. 
मन की नगरिया 
का नित मौसम 
रंग भरा भी और बेरंगा
मन रे !
तोरी ना थाह मिले  ...

कोई ना जाने
कोई ना समझे
जो बूझे तो
उलझा उलझा ही जाए
मन के भरोसे
बैठे कोई कैसे
अनबूझी सी
एक पहेली ,
जो
बूझे सो पछताय
मन रे !
तोरी ना थाह मिले ....


................. निपुण पाण्डेय "अपूर्ण " 

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रविवार, 31 जुलाई 2011

कुछ...

कुछ जुड़ गया
कुछ रह गया
कुछ मिल गया
कुछ खो गया

यूँ हो गया
कुछ कह गया
कुछ सुन गया
कुछ याद था
कुछ भूला गया 

कोई वक़्त था
कब बढ़ चला
कब थम गया
कुछ नम हुआ
कुछ सिल गया
कुछ खिल उठा
कुछ गा पड़ा

हर पल नया
यूँ दिख गया
कुछ रब्त थे
मिट भी गये
बंधन नए
बंध भी गये
पर जब्त था
बढ़ता ही गया
वो वक़्त था
कहता ही गया

ये साँस थी 
बस चलती रही
हर पल नया
कहती रही
वो ख्वाब थे
हम बुनते रहे

वो तो ख्वाब थे
उधडे भी कभी
फिर सिलने की,
की जुगतें कई
कुछ सिल गये
कुछ उधड़ते ही गये

ये कि जिन्दगी थी
यूँ चलती ही रही
हँसाती भी रही
उलझाती भी गई

और
एक हम भी थे
कि, हँसते भी रहे
फिर रोया भी किए
उलझे भी रहे
पर,
सुलझते ही गये |

.................. निपुण पाण्डेय "अपूर्ण "

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मंगलवार, 25 जनवरी 2011

आज मनावें गणतंत्र दिवस ...

गणतंत्र दिवस पर शुभकामनाओं और तंत्र को सुन्दर और स्वच्छ बनाने के लिए एक नयी शुरुवात के आवाह्न के साथ ....

आज मनावें गणतंत्र दिवस आओ कुछ सोचा जाय,
ख़ुशी के साथ जरा गुजरे पन्नो को पलटा जाए !
भारत की जो बात करो, भारी गणतंत्र याद आ जाय,
सबसे ज्यादा जनता, इतनी जनता का राज कहाय |

गणतंत्र ये बरसों पुराना, जनता का जब राज भयो ,
ईसा के पहले वैदिक जुग में भी जन को ही तंत्र भयो |
जन औ गण की बात ये कोई नयी ना होती भाई,
अपने वेदों में भी इन तंत्रों की महिमा गयी दिखाय |

आज वक़्त ने पलटी मारी, जनता को दियो सुलाय ,
देख देख जनता खुद कोसे, फिर निंद्रा में जाय समाय |
फिर सर्दी के मौसम में दिवस गणतंत्र ठिठुरता आय ,
हर साल तंत्र की गाथा देखो सिकुड़ी सिकुड़ी जाय |

घोटालों की बाढ़ जो आये जनता देखो बहती जाए ,
एक डाल पर एक घोटाला दूजे पे दूजा लटका पाय |
कोई अपना महल बनाये कोई हवा को कैश कराय,
अनंत तक देखो घोटालों की सुरंग दिए बनवाय|

कोई मंत्री करे है तंतर, मिल कोई खेले जंतर मंतर,
जनता की महिमा बस इतनी, एक तंत्री दियो बिठाय |
ऐसो मायावी गणतंत्र ये कैसो वख्त दियो दिखलाय ,
छिन्न भिन्न सब तंत्र ये कैसो वख्त दियो दिखलाय |

चूहे बिल्ली का सा खेल अजब ये ससुरे दिए बनाय,
एक जाए झंडा फहराने दूजा उ पर अपना रंग चढ़ाय |
आओ जुगत भिडाओ कोई , पहले इनको सफा कराय,
फिर आओ झंडे के नीचे गणतंत्र दिवस मनाया जाय |

------ निपुण पाण्डेय "अपूर्ण"

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