सीमा पार
कितना सुखद है
उस सीमा के पार
जीवन
वहां चिंता है
पर इतनी तो नही
वहां भय है
पर इतना नही
वहां समाज है
पर इससे बहुत ज्यादा
वहां प्रेम है
अपनत्व है
सोहार्द है
यहाँ से कहीं ज्यादा
और स्वार्थ है
यहाँ से बहुत कम
वो सीमा जो
यहाँ से कुछ दूर
कुछ किलोमीटर दूर
खिंच गयी है स्वतः ही
और हम !
निरंकुश होते जा रहे हम
लगे हैं
इस सीमा को बढ़ाने में
लपेट लेंगे सबको
इसी घेरे में
और फिर लूटेंगे
खसोटेंगे
मरेंगे- मारेंगे
बना देंगे अपनी तरह
स्वार्थी
और फिर वो भी
शामिल हो जायेंगे
इसी लूट में
पहले लुटेंगे
फिर लूटेंगे !
जो लूट लेगा
दूसरे को
उसका 'क्लास' होगा
'सोसाइटी' में
जो लुट गया
वो लुटेरा बन जायेगा
उस 'क्लास' का
'क्लास' की नजर में
और हम सब हो जायेंगे
विकसित,
अंधे विकसित नागरिक ....
उस सीमा के पार
जीवन
वहां चिंता है
पर इतनी तो नही
वहां भय है
पर इतना नही
वहां समाज है
पर इससे बहुत ज्यादा
वहां प्रेम है
अपनत्व है
सोहार्द है
यहाँ से कहीं ज्यादा
और स्वार्थ है
यहाँ से बहुत कम
वो सीमा जो
यहाँ से कुछ दूर
कुछ किलोमीटर दूर
खिंच गयी है स्वतः ही
और हम !
निरंकुश होते जा रहे हम
लगे हैं
इस सीमा को बढ़ाने में
लपेट लेंगे सबको
इसी घेरे में
और फिर लूटेंगे
खसोटेंगे
मरेंगे- मारेंगे
बना देंगे अपनी तरह
स्वार्थी
और फिर वो भी
शामिल हो जायेंगे
इसी लूट में
पहले लुटेंगे
फिर लूटेंगे !
जो लूट लेगा
दूसरे को
उसका 'क्लास' होगा
'सोसाइटी' में
जो लुट गया
वो लुटेरा बन जायेगा
उस 'क्लास' का
'क्लास' की नजर में
और हम सब हो जायेंगे
विकसित,
अंधे विकसित नागरिक ....
----- निपुण पाण्डेय "अपूर्ण"
1 टिप्पणियाँ:
ahhh.. what a poem :)
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