मुखौटा..................
चाहता हूँ अब तक
मैं इन्सां से मिलना
मुझे जानना है
कैसा इंसान होता
सुना था धरती में
बसते हैं इन्सां
जो देखा इन्हें
सारे लगते मुखौटा
मुखौटों की जैसे
पूरी दुनिया बनी है
हर शख्श जो मिलता
वो लगता मुखौटा
बस इतना नहीं
सबका अपना मुखौटा
मुखौटा यहाँ जैसे
मेले में बिकता
एक ही सख्श औ'
हजारों मुखौटे
कपड़ो के जैसे
बदलता मुखौटा
मुझसे मिला तो
अलग है मुखौटा
तुझसे मिला तो
अलग है मुखौटा
दफ्तर गया तो
नया है मुखौटा
घर पर जो बैठा
पहना घर का मुखौटा
मुखौटा लगाता कि
सबको दे धोखा
एक दिन यूँ ख़ुद पे
पड़ा भारी मुखौटा
आज ऐसा दिखा दिन
न जाने वो ख़ुद को
चाहे अगर तो भी
न हटता मुखौटा
इन्सां यहाँ क्यों
ख़ुद ही को भूला
वो ख़ुद भी ये जाने
सारे पहने मुखौटा
हैं जानते सब
सबका असल क्या
फ़िर क्यों न जाने
सब लगाते मुखौटा
बचपन से मैंने
सीखा यही बस
जीना यहाँ तो
लगा ले मुखौटा
मुखौटा लगा के
सबको धोखा तू देना
सच गर दिखाया
तो हर कोई कुचलता
कोशिश किया में
पहन लूँ मुखौटा
है काम मुश्किल
मुझसे न होता
देखूंगा में भी
मिले कोई मुझ सा
दिखे कोई ऐसा
जो न पहने मुखौटा .................
-------------------------- निपुण पाण्डेय "अपूर्ण "
5 टिप्पणियाँ:
Bahut acchi kosis rahi dost, "Ek insan ke Kai mukhuate"
mukhaute ki bhasha samjhta mukhauta
jhoot ko sach banata mukhauta
bahut hi achchi kavita hai
क्या बात है इमाम साहब
दो चार पंक्तियन और जोडो इसमें
badiya hai dost, likhte raho..
yeh hindi kavita ka blog ek naya aur pragatisheel maadyham hai
मुखौटों की जैसे
पूरी दुनिया बनी है
हर शख्श जो मिलता
वो लगता मुखौटा
bahut sahi kaha hai.....bahut khoob...
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