काश......................
काश! तब कुछ बोल पाया होता
चाहे कुछ भी बडबडाया होता
तिलमिलाता देख खुद को सोचता हूँ
शायद उस रोज़ कुछ पाया होता
स्वपन देखे कई थे उस रोज़ मैंने
निशा के आने के पहले और बाद भी
कुछ अगर हिम्मत जुटा पाया होता
शायद उस रोज़ कुछ पाया होता
था वो क्या ? एक स्वप्न
या हकीक़त का घरोंदा
ओंठ गर उस दिन हिला पाया होता
शायद उस रोज़ कुछ पाया होता
देखकर ख़ुद की व्यथा
उस रोज़ भी यूँ झुंझलाया होता
एक लब्ज़ भी जुबान से गर निकल आया होता
शायद उस रोज़ कुछ पाया होता
-----------------निपुण पाण्डेय "अपूर्ण"
0 टिप्पणियाँ:
एक टिप्पणी भेजें