अरमां मेरे ................
आज एक ग़ज़ल लिखने की कोशिश की ......ग़ज़ल के तकनीकी कानून से तो बहुत दूर भटक ही गया हूँगा ...फिर भी कुछ कुछ तुकबंदी सी हो गई है.................
इन दिनों कुछ इस तरह चले जाते हैं,
झूमते गाते ही सब हमें नज़र आते हैं|
राह में चलते हुए शब्-ओ-रोज़ मगर,
अजनबी खुद को, खुद से ही पाते हैं|
खोजते रहते हैं कूचों में कुछ न कुछ,
मीनारें उँगलियों से बनाना चाहते हैं |
तन्हाइयों में गुम, भटकते हैं इस तरह,
नुक्कडों पर मैकदे बस नज़र आते हैं |
रास्ते मिलते हैं चौराहों पे खुद-ब-खुद,
मंजिलों के निशाँ मगर सिमट से जाते हैं|
मंजिलों से आते हैं ख़ामोश हवा के जब झोंके,
"निपुण" अरमां तेरे, फिर मचल से जाते हैं |
-------------- निपुण पाण्डेय "अपूर्ण "
6 टिप्पणियाँ:
bahut khub sir ji
क्या बात है मेरे दोस्त ... पहली ही बाल पे छक्का मर दिया तुमने .. मस्त गझल लिखी है ..
rehne de aasma,
zamin ki talaash kar,
sab kuch yahin hai,
na kahin aur talaash kar,
har arzoo ho poori to jeene ka kya mazaa,
jeene ke liye bas ek kami talaash kar
it was a nice one dost :)
बहुत खूब दोस्त
धन्यवाद..:)
aapko thoda alfaazo ki uchcharan matr samajhne ki zarurat hai... agayr aap kavita likhte hai toh dhyaan de ki aap matr boli par concentrate kar rahe hai yaa alfaaso par...baaki mujhe aapki expressiveness pasand aayi aur jis tarah aapne apni obseravation ko lafzo mein utaara hai wo laajawaab hai
मान्यवर आपने बहुत ही अच्छी कहन की गजल कही है
मगर इतनी अच्छी गजल पढने में लय की कमी खल रही है क्योकी गजल बहर में नहीं है
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