भोर से पहले
आज सुबह तकरीबन चार बजे ही आँख खुल गई | सोचा कुछ लिखूं तो ये कुछ पंक्तियाँ बन पड़ी .......
जग गया हूँ आज मैं सुहानी भोर से पहले
सोचता हूँ इस ख़ुशी में कुछ लिखूं ,
पर भटकता हूँ विचारो की धुन्ध में
बूझता हूँ आप से, लिखूं तो क्या लिखूं ?
पंछियों के प्रात के इस गान को
मधुर कलरव समझ कर मैं लिखूं ?
या निशा के दूर तक फैले हुए
निःशब्द सन्नाटे को लिखूं ?
भानु की चंचल किरण जो अभी आई नहीं
तेज को उसके, नव जोश को लिखूं ?
या गगन में दूर तक पसरे हुए
तिमिर घोर के आक्रोश को मैं लिखूं ?
सोचते ही सोचते नभ लालिमा में रंग गया
रात का अँधा कुआँ चुपचाप जा के सो गया ,
क्षितिज से है झांकती उज्जवल उषा
सोचता हूँ अब इस उजाले पर लिखूं |
इस सुबह मैं कुछ नया ना सोच पाया
पर वही सच बचपन से सुना फिर याद आया,
सब्र रख, बीतेगी निशा और सुबह होगी
चाहता हूँ भोर के उन्माद को अब मैं लिखूं |
----------------- निपुण पाण्डेय "अपूर्ण"
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