मंगलवार, 14 जुलाई 2009

मैं अपूर्ण......

बहुत दिनों से ये रिश्ता कुछ ऐसा बन गया है की बस अब कभी भी तुम कुछ न बोलो तो लगता है जैसे कुछ अधूरा सा रह गया |
सोचा आज तुम पर ही कुछ लिखूं या फिर तुम चली आई अपने आप कुछ बन कर ......

बादल उमड़ते हैं,
तुम आती हो
बादल बरसते हैं,
तुम आती हो
हवा की छुन-मुन
या
तूफ़ान की सरसराहट
तुम आ ही जाती हो,

तन्हाई के भीगे पलों में,
रुसवाई के क्षणों में,
याद कोई आये
या मिल जाये,
विरह की वेदना
या मिलन का उन्माद,
सच !
तुम्हें नहीं मतलब इन सब से,
तुम ही हो
सच्ची हमसफ़र शायद,
जो कुछ नहीं मांगती मुझसे
हाँ कभी भी नहीं
बस आ जाती हो,

दिल के भीतर कहीं
छुपी सी रहती हो
हमेशा,
बस कुछ भी हो
आ जाती हो
इठलाती हुई,

कोई भय भी नहीं
तुमको
लोगो का ,
दुनिया का ,
कोई क्या कहेगा?
उँगलियाँ उठेंगी तुम पर?
या महफिले सजेंगी,
तुम ऐसी हो या वैसी हो,

अब शायद
कोई फर्क नहीं पड़ता
मुझे भी
की तुम कैसी हो,
क्या नाम दूं तुमको?
क्या परिभाषा दूं ?
जैसी भी हो
तुम मेरी ही हो
हाँ
तुम मेरी कविता हो |

कभी सोचता हूँ
मैं नहीं लिखता तुमको,
तुम लिख देती हो
मुझे,
मेरे मन को,
इन हलचलों को
आकार देती हो,
वर्ना भटकती फिरती
जो कहीं,
शायद तुम मेरी हो
मैं तुम्हारा
और तुम्हारे बिन
मैं अपूर्ण |

--------निपुण पाण्डेय "अपूर्ण "

3 टिप्पणियाँ:

अनिल कान्त गुरुवार, 16 जुलाई 2009 को 2:11:00 am IST बजे  

मुझे बहुत पसंद आई आपकी रचना

M VERMA गुरुवार, 16 जुलाई 2009 को 7:27:00 am IST बजे  

क्या परिभाषा दूं ?
जैसी भी हो
तुम मेरी ही हो
हाँ
तुम मेरी कविता हो |
कविता तो स्वय परिभाषा है. मत परिभाषित करो.
बहुत सुन्दर कविता

कविता by निपुण पाण्डेय is licensed under a Creative Commons Attribution-Noncommercial-No Derivative Works 2.5 India License. Based on a work at www.nipunpandey.com. Permissions beyond the scope of this license may be available at www.nipunpandey.com.

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