शनिवार, 4 जुलाई 2009

मिथ्या....

जग जग घूमा नगरी नगरी
माया की ये दुनिया पूरी,
आखिर में मैं खुद से बोला
चल वापस ये शाम घनेरी|

मन तो निश्चल पावन था ये
ना समझा था कुछ कुटिलाई,
मनभावन जो इसे लगा था
उस पथ की थी आस जगाई |

पल पल महकी खुशबू आई
दूर मरीचिका जब इठलाई,
देख उसे तब चंचल मन में
लोलुपता ने ली अंगडाई |

देखा इसने कोनो कोना
सब लगता था कंचन सोना,
पास गया जब तो ये पाया
ठूंठ था सब, था मिथ्या रोना|

रे मन ! अब तू सोच समझ ले
दिखे जो पथ ये सुगढ़ सरल सा,
मुश्किल होगा पार पहुँच के
मिलना, देखा स्वप्न था जिसका ||



------------------ निपुण पाण्डेय "अपूर्ण"

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