आखिरी अलविदा.....
कुछ देर, इक दिन या इक हफ्ता
बस !
यही कह कर गए थे न तुम ?
और ये उम्मीद जगी रह गई
वापसी की.......
शायद मुसलसल मिलती रही माफियाँ
बेफिक्र कर गई मुझको
खौफ ही न रहा, कि कोई
लकीर भी है हमारे दरमियाँ
शायद मैं ही न समझ पाया था
या दोस्ती
या फिर लकीरें
या फिर
भरोसा हो गया था
या तो खुद पर
या आप से जयादा तुम पर
पता नहीं किस पर !
काले बादलों के बीच निकल पड़ता है
चाँद जब, चमचमाते खंजर की तरह,
तुमने भी, कम से कम
इक हाथ निकाल के कह दिया होता
अलविदा !
हाँ !
आखिरी अलविदा ही सही
और काट दिया होता गला इन उम्मीदों का
उस खंजर से,
कि
अब झूठी उमीदों के साथ नहीं जिया जाता मुझसे !!
------------निपुण पाण्डेय "अपूर्ण"