चार लम्हे....
फ़िर नया एक जहाँ,
एक खुशरंग समां,
एक मौसम नया
बनाना चाहता हूँ,
वक्त तुझ से चार लम्हे
फ़िर चुराना चाहता हूँ |
हर शख़्स को खुशी में
मुतरिब बनाना चाहता हूँ,
महफिलों के रंग लबों पे
अब सजाना चाहता हूँ ,
रंज-ओ-गम अब बस !
दोस्ती में सब भुलाना चाहता हूँ,
दूसरे में सबको यहाँ
ख़ुद को दिखाना चाहता हूँ,
बरसों के सूखे दरख्तों को
गुलशन में खिलाना चाहता हूँ ,
जंग में रूठे दिलों को
वस्ल के नुस्खे सिखाना चाहता हूँ ,
देख बन्दों को यहाँ
फ़िर मुस्कुराना चाहता हूँ ,
वक्त तुझसे चार लम्हे
फ़िर चुराना चाहता हूँ |
---------- निपुण पाण्डेय "अपूर्ण"
3 टिप्पणियाँ:
बरसों के सूखे दरख्तों को
गुलशन में खिलाना चाहता हूँ ,
जंग में रूठे दिलों को
वस्ल के नुस्खे सिखाना चाहता हूँ ,
वाह जी वाह बेहतरीन
आप सभी को 59वें गणतंत्र दिवस की ढेर सारी शुभकामनाएं...
जय हिंद जय भारत
हर शख़्स को खुशी में
मुतरिब बनाना चाहता हूँ,
महफिलों के रंग लबों पे
अब सजाना चाहता हूँ ,
bahut khub
sunder rachana
This one result of a thoughtful mind and immense creativity.
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