हाशिया...!
याद है ना!
एक हाशिया होता था!
इसके उस पार लिखा तो
कट जाते थे नंबर
इम्तेहान में !
एहतियात के लिए
हर कोई
कॉपी मिलते ही ,
हर पन्ने पर
खींच देता था हाशिया !
और फिर शुरू करता था
लिखना |
लेकिन ये तो आदत सी ही पड़ गई !
हाँ !
ज़िन्दगी एक किताब है !
मानता हूँ मैं,
और ये भी
कि जीवन एक इम्तेहान !
मगर,
हाशिया ना हो
ज़िन्दगी में गर !
तो क्या
हो जायेंगे फेल !
क्यों हमेशा खींच देते हैं
हम,
एक हाशिया ज़िन्दगी में !
और जीते रहते हैं
उसके एक तरफ !
सोचते भी नहीं कभी
क्या होगा दूसरी तरफ !
सच बताऊँ !
मैंने तो
छोड़ दिया था
बहुत पहले ही
हाशिया खींचना !
इम्तेहान की कॉपी में|
पर अब
ना जाने क्यों
मजबूर होता हूँ अक्सर, खुद ही
ज़िन्दगी में
खींचने को हाशिया!
नही हो सकती क्या ?
जिन्दगी,
हाशिये के उस पार !
------------ निपुण पाण्डेय "अपूर्ण"